दुष्यंत कुमार त्यागी की लोकप्रिय कविता
हैं “कुंठा” जो व्यक्ति के अंतर कलह को बहुत सुन्दर रूप से चित्रित करती हैं. आज के
सामाजिक, राजनैतिक परिवेश कुछ इसी कुंठा को प्रतिबिंबित कर रहा हैं. विगत कई दिनों
से कई साहित्यकारों ने फिर फिल्मकारों ने और अब सैनिकों ने राष्ट्र सम्मानों को
लौटना शुरू कर दिया हैं. इसको लेकर दो बौधिक धड़ो में द्वन्द जारी हैं. एक वर्ग जो
अपने आप को इन सभी का समर्थन करता पा रहा हैं क्यूंकि उसके अक्षुण्णता पर उसे
प्रश्न दिख रहे हैं और वो अपने आप को खुलकर व्यक्त कर पाने में अपने आप को असक्षम
पा रहा हैं. वाही एक बहुत संकीर्ण मानसिकता वाला धड़ हैं जो इन सभी राष्ट्र सम्मान
से सम्मानित लोगों को केवल लोकप्रियता का लोलुप बता रहा हैं और देश द्रोही भी बता
रहा हैं.
आज देश में अलगाववाद बहुत तेज़ी से बढ रहा
हैं और सत्ताधारी पार्टी जो बहुमत से आई हैं अपने रुख को स्पष्ट नहीं कर पा रही
हैं. सब जानते हैं की बीजेपी हिन्दू राष्ट्र का निर्माण करना चाहती हैं या यूँ कहे
की चुनावों के समय वह अपना यह बिगुल बजाती हैं. ये एक अलग बात हैं की उसके चुनावी
घोषणा पत्र में वो कही न कही तुष्टिकरण की राजनीति करती दिखती हैं. ऐसे में यह
स्वाभाविक हैं की उसके द्वयं दर्जे के नेता और कार्यकर्ता सत्ता में आते ही हिन्दू
वाद का नारा बुलंद करेंगे. परन्तु क्या इसके लिए वैचारिक रूप से आपके
प्रतिद्वन्दियो का रक्त बहाना अनिवार्य हैं? विगत कुछ महीनो से स्वछन्द विचारधारा
के समर्थको की जान ली गयी हैं जिसमे नरेन्द्र दाभोलकर, गोविन्द पंसारे और प्रोफ
कलबुर्गी के नाम प्रमुख हैं और प्रोफ कलबुर्गी के हत्या ने ही कही न कही बुद्धिजीविओं
को चेताया हैं. और सम्मान वापसी का ये सिलसिला चल पड़ा.
यदि सरकार इन असंतुष्ट लोगों की चिंताओं
को सुनकर अपनी संवेदना दे देती, तब शायद यह बात इतना तूल न पकड़ता. परन्तु वर्तमान
में सरकार का रवैय्या इस प्रकार का हैं की हम राजा हैं और आप सभी हमारे रियासत की
जनता, जिसे हमारी हर सही गलत बात को अपनी प्रत्यक्ष परोक्ष सहमति देनी ही होगी.
परन्तु शायद सत्ता धरी ये भूल रहे हैं की यह न हीं मुस्सोलीनी की इटली हैं और न ही
हिटलर की जर्मनी. यह भारत हैं जो विश्व का सबसे बड़ा लोकतंत्र हैं और लोकतंत्र में
जनता जनार्धन ही सब कुछ हैं. इसलिए सरकार इसे देश द्रोह नहीं करार दे सकती या इतनी
छोटी बात नहीं कह सकती की ये सारे विद्द्वान केवल टीवी और समाचार पत्रों में अपना
नाम देखना चाहते हैं. कुछ उपन्यास लेखको ने तो इस महतवपूर्ण मुद्दे को अंग्रेजी
बनाम हिन्दी लेखकों का द्वन्द बता दिया. वे प्रधान मंत्री जी की तारीफ करते समय यह
भूल गए की वे भी अंग्रेजी में ही लिखते हैं.
किसी भी समाज में लेखक या यूँ कहें की
बुद्धिजीवी वर्ग हमेशा परिवर्तन अथवा गड़बड़ी का शंखनाद करता हैं. हमारे देश में भी
जब भी लोकतंत्र पर हमला हुआ हैं, ये ही वह वर्ग हैं जिसने विरोध किया और आम जन
मानस को चेताया. आज भी यह वर्ग ये ही काम कर रहा हैं. और इस लेखक का मानना हैं की
बुद्धिजीवी बौधिक तर्क से अपना मत मनवा सकते हैं. परन्तु आज जो दक्षिण पंथी समर्थक
हैं वे बौधिक तर्क के लिए तैयार नहीं हैं. वे जुमलो, नारों और वाक्पटुता के धनि
प्रधान मंत्री जी का सहारा ले रहे हैं परन्तु तार्किक बातों से बच रहे हैं. प्रधान
मंत्री जी को इस चर्चा में सम्मिलित करना इसलिए आवश्यक हैं क्यूँ की वे कर्ण धार हैं विकास के, ऐसा वे लगातार कह रहे
हैं. वे बिहार के चुनावों में लोकतंत्र के मर्यादाओं को तोड़ते हुए कई बयां दे रहे
हैं जिनके दीर्घकालीन प्रभाव भयावर हो सकते हैं, परन्तु उनके पास 10 मिनट का समय
नहीं हैं इन लेखको, फिल्मकारों और सैनिकों के सन्दर्भ में सरकार की स्थिति स्पष्ट
करने के लिए. उनके पार्टी के अध्यक्ष बीजेपी के विरोध में मत देने को पाकिस्तान का
समर्थन बता सकते हैं परन्तु वे साहित्यकारों से मिल नहीं सकते.
इन सभी घटनाक्रम के दो ही अर्थ हो सकते
हैं- पहला की सरकार अपने दुसरे और तीसरे पंक्ति के नेताओं द्वारा की गयी बातों का
समर्थन करते हैं और चाहते हैं की उनके विरोधी अल्पसंख्यकों की गिनती में आ जाए
अथवा इसके परिणाम के लिए तैयार रहे. दूसरा अर्थ यह हैं की सरकार के पास कोई रणनीति
ही नहीं हैं और न ही उसके पास विद्वान हैं जो उनके विरोधिओं का मुकाबला कर सके.
यह कतई आवश्यक नहीं हैं की देश का
प्रत्येक व्यक्ति इन विरोधी साहित्यकारों, फिल्मकारों और सेनानिओं से सहमत हो
परन्तु हर देशभक्त इनका विरोधी होगा यह भी आवश्यक नहीं हैं. लोकतंत्र का अर्थ ही
यह हैं की हम अपने विचार रखने के लिए स्वतंत्र हैं. और साथ ही अपने से भिन्न
विचारो को सुनने समझने के लिए भी तैयार रहे. कट्टरपंथ का लोकतंत्र में कोई स्थान
नहीं हैं. साथ ही प्रधान मंत्री जी अपने असंख्य विदेश यात्राओं में जो देश को लेकर
गुलाबी सपने बुन रहे हैं, उसमे तो साक्षी महाराज और ओवेसी दोनों का ही स्थान नहीं
हैं. यदि उनके मित्र बराक के ही देश की बात करे तो वो भी अपने विकास के शीर्ष पद
पर सहिषुनता और वैचारिक स्वतंत्रता से ही पंहुचा और आज वह एक युद्ध पोषित
अर्थव्यवस्था भी इसीलिए बन गयी क्यूंकि उसने इस वैचारिक स्वतंत्रता की छूट समाप्त
कर दिया.
जब ये सरकार सत्ता में आई थी और मंत्रिओं
की नियुक्ति हो रही थी, तब ही यह स्पष्ट हो गया था की प्रधान मंत्री जी के पास
मजबूत दूसरी पंक्ति नहीं हैं जिनका बुद्धिजीविओं में स्वीकार्यता हो. वर्तमान
राजनैतिक और सामाजिक गतिरोध से यह बात और स्पष्ट हो रही हैं. यदि वे भारत को विश्व
के शीर्ष पर देखना चाहते हैं तो स्मार्ट सिटी, डिजिटल इंडिया, मेक इन इंडिया की
नीव वे अलगाववाद पर नहीं रख सकते हैं.
superb
ReplyDeletevery nice
ReplyDeleteNicely depicted
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