बिहार चुनाव के परिणाम आ गए हैं और नितीश
कुमार जी तीसरी बार मुख्य मंत्री पद पर आसीन होंगें. बिहार सदैव से ही ज्ञान और परिवर्तन
की भूमि रही हैं. स्वाधीनता संग्राम हो चाहे जे पी नारायण का आन्दोलन, बिहार बदलाव
का अग्रसर रहा हैं. वर्तमान चुनाव के परिणामो ने भी यह सिद्ध किया हैं की बिहार की
जनता राजनैतिक रूप से परिपक्व हैं और यह जानती हैं की विकास के लिए क्या ज़रूरी
हैं.
यह चुनाव कई माईनो में प्रथम रहा हैं.
विगत 2- 3 दशकों में पहली बार किसी राज्य के चुनाव में प्रधान मंत्री जी का इतना
हस्तक्षेप रहा और इतनी सभाए ली गयी. बड़े दिनों बाद किसी राजनेता की किस्मत को इतने
बड़े पैमाने में बदलते देखा. कई चुनाव बाद किसी दल या व्यक्ति के पक्ष में मत पड़े.
बहुत दिनों बाद पत्रकारों ने ज़मीनी हकीकत जानने की ज़रूरत महसूस की. कई चुनावों के
बाद खालिस राजनीति देखने को मिली. बिहार चुनाव के दूरगामी परिणाम देखने को
मिलेंगे. कोई भी चुनाव आखरी चुनाव नहीं होता हैं और कोई भी परिणाम आखरी परिणाम
नहीं होता. परन्तु इसके बावजूद पश्चिम बंगाल, उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश,
छत्तीसगढ़, पंजाब के चुनवों पर बिहार चुनाव की छाप देखने को मिलेगी.
महागठबंधन की जब तैय्यारी चल रही थी तो कई
राजनैतिक विश्लेषकों का मानना था की यह चलेगी नहीं क्यूंकि वर्तमान में तीसरा
फ्रंट काम नहीं किया हैं. जब समाजवादी पार्टी के मुखिया मुलायम सिंह यादव ने इस
गठबंधन से दुरी बना ली तो इस तर्क को और शक्ति मिली. जब सीटों के बटवारे की बात
हुई और लालू जी और नितीश जी की पार्टी ने सामान सीटों पर चुनाव लड़ने की बात कही तो
लगा की क्या लालू यादव, नितीश जी के विकास के कंधे पर बैठ अपनी राजनीति चमकाना
चाहते हैं? कांग्रेस के लिए भी यह चुनाव अहम् था क्यूंकि यह वह राज्य हैं जहाँ
सालों कांग्रेस ने राज्य किया परन्तु विगत कई दशकों से कांग्रेस का सूपड़ा साफ़ हो गया.
राहुल जी गठबंधन के बहुत बड़े समर्थक नहीं रहे हैं और उनका मानना हैं की एकला चोलो
रे अधिक ठीक हैं पर स्थानीय नेताओं के दबाव में उन्होंने भी गठबंधन का समर्थन किया
और 41 सीटो में से 27 सीटों पर कांग्रेस विजयी रही हैं.
अब जब चुनाव समाप्त हो गया हैं तो
आवश्यकता हैं की भविष्य की बात की जाए और सरकार के प्राथमिकताओं तय किये जाये.
नितीश जी ने बड़ी चतुराई से लालू जी बनाम मोदी जी का चुनाव प्रचार करवाया और दोनों
ही नेताओं ने जमकर राजनैतिक असहिषुनता दिखाई और अमर्यादित भाषा का जमकर प्रयोग
किया. नितीश जी ने अपने विकास पुत्र का चेहरा आगे बढ़ाते हुए सकारात्मक प्रचार
किया. इसी तारतम्य में यह ज़रूरी हैं की वे अब शिक्षा और स्वास्थ्य पर ध्यान
केन्द्रित करे. बिहार अब बीमारू राज्यों का अग्रणी नहीं रहा हैं और रोड के मामले
में तो वह बहुत आगे निकल गया हैं. परन्तु यदि हम वोट का थोडा विश्लेषण करे की किस
समुदाय से महागठबंधन को अधिक मत मिले हैं तो हम पायेंगे की आज भी दलित, अति पिछड़ा,
पिछड़ा, अल्पसंख्यक वर्ग ने ही इन्हें सबसे अधिक मत दिए हैं. इससे यह बात स्पष्ट
हैं की आज भी एक बहुत बड़ा वर्ग हैं जो विकास से अछुता हैं और जिसके आकांक्षा
मूलभूत सेवाओं की ही हैं. केंद्र सरकार के लिए भी यह सीधा सन्देश हैं की वे
स्मार्ट सिटी और मेक इन इंडिया के चकाचोंध में कही इस वर्ग की उपेक्षा न हो जाए.
लालू जी एक खालिस राजनेता हैं जो जे पी युग से आये हैं जनता की नब्ज़ पकड़ना जानते
हैं. साथ ही उनका पिछला रिकॉर्ड बहुत साफ़ सुथरा नहीं रहा हैं, ऐसे में नितीश जी के
लिए यह चुनौती हैं की वे इस गठबंधन को 5 वर्ष चलाये और जिस आकांक्षा से बिहार की
जनता ने उन्हें पुनः अपना मुखिया बनाया हैं उस पर वे खरे उतरे.
कांग्रेस के लिए यह चुनाव एक अप्रत्यक्ष
वरदान साबित हुआ. चूँकि पिछले कई चुनाव से पार्टी का प्रदर्शन निराशाजनक रहा हैं
इसलिए किसी को भी बहुत अधिक अपेक्षाएं नहीं थी. ऐसे में पिछले बार के 5 के मुकाबले
27 सीट जितना कार्यकर्ताओं के मनोबल के लिए बहुत अच्छा हैं. साथ ही पार्टी को
क्षेत्रीय लोक बल वाले नेताओं को प्राथमिकता देना चाहिए, यह भी स्पष्ट हो गया हैं.
यह चुनाव मोदी जी एवं उनके टीम के लिए
निर्णायक रहा हैं. चूँकि प्रधान मंत्री जी को चुनाव में पार्टी के मुख के रूप में
प्रस्तुत किया गया इसलिए परिणाम की ज़िम्मेदारी भी उन्हें लेनी होगी. यह स्पष्ट हैं
की जनता धर्म और गैर ज़रूरी बातों में नहीं आने वाली हैं. इसलिए केवल चुनावी सभाओं
में विकास की बात से कुछ नहीं होगा, ज़मीन पर इसे फलीभूत करना भी आवश्यक हैं. साथ
ही पार्टी के मुखिया को सोच समझकर बयान देने चाहिए क्यूंकि इसके विदेश निति पर भी
प्रभाव देखने को मिलेगा. केंद्र सरकार राज्य सभा में अल्पसंख्या में हैं और
विभिन्न बिल पारित करने में उसे अपने विपक्ष के सहयोग की आवश्यकता होगी. ऐसे में
ज़रूरी हैं की सरकार विरोध के स्वर को सुने, न की उसका उपहास करे. प्रजातंत्र में
सहकारी संघवाद की अव्य्शाकता हैं और इसके लिए राज्य और केंद्र सरकारों में
राजनैतिक भिन्नता होनी चाहिए. इस भिन्नता को भी केंद्र सरकार को स्वीकारना होगा.
आम
जनता पर भी एक बहुत बड़ी जवाबदेही हैं. आज सम्प्रेषण के बहुत सुविधाओं के आने से
जनता, मतदाता या आम नागरिक न रहकर, राजनैतिक प्रशंसक बन गयी हैं जो बहुत हानिकारक
हैं. ऐसे में तर्क कही गुम हो जाता हैं और केवल अंध भक्ति रह जाती हैं. राजनैतिक
दलों के लिए भी अव्य्षक हैं की वे फ़र्ज़ी नामों से सोशल मीडिया में अपनी बात न रखे
और भड़काऊ प्रचार से बचे. प्रजातंत्र में जनता को जनार्धन कहा गया हैं परन्तु
वास्तविकता यह हैं की वह केवल मतदान के लिए होती हैं. बिहार चुनाव में जनता सही
में जनार्धन हैं और आगे भी वह प्रशासक का पथ प्रदर्शन करती रहे और अपने संविधानिक
अधिकारों के लेकर सचेत रहे. यदि सरकार अपने धर्म से भटकती हैं तो जनता ही वह
मार्गदर्शक हैं जिसे सरकार को चेताना होगा.
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