भारत सरकार द्वारा खाद्द सुरक्षा अधिनियम
लाया गया जिसके अंतर्गत भोजन को अधिकारों की श्रेणी में रखा गया और देश के 67
प्रतिशत जनसँख्या को इसके तहत लाने की बात राखी गयी. भोजन के साथ साथ महिला
सशक्तिकरण की भी बात की गयी क्यूंकि अनाज घर की महिला मुखिया के नाम दिया जाएगा.
युपीए सरकार ने डीबीटी योजना प्रारंभ की थी जिसमे हितग्राही को अनाज न देते हुए सीधे नकद देने की बात कही गयी थी.
वर्तमान प्रधान मंत्री जी ने इसी योजना को आगे बढ़ाते हुए जन धन योजना प्रारंभ की
जिसके तहत देश के प्रत्येक नागरिक के खाता खोले जायेंगे और वर्ष 2018 तक इस कार्य
को पूर्ण करना हैं. जन धन योजना न केवल वित्तीय समायोजन का एक यंत्र हैं अपितु
सार्वजनिक वितरण प्रणाली तथा अन्य जनकल्याणकारी योजनाओं में हो रहे भ्रष्टाचार और
चोरी को समाप्त करने का एक तरीका भी हैं.
इस
वर्ष के आरम्भ में शांता कुमार जी की अध्यक्षता में एक समिति बनायी गयी जिसने,
भारतीय खाद्द निगम के सुधार और पुनर्निर्माण, के लिए अपने सुझाव दिए. इस समिति के
अनुसार 47 प्रतिशत अनाज सार्वजनिक वितरण प्रणाली में से चोरी चला जाता हैं, अतः
अनाज के स्थान पर नकद दिया जाना चाहिए और खाद्द सुरक्षा के अंतर्गत आने वाले लोगों
की संख्या भी कम की जानी चाहिए. परन्तु छत्तीसगढ़, ओडिशा और हाल ही में बिहार के अध्य्यन
बताते हैं की सार्वजनिक वितरण प्रणाली में सुधार लाये गए हैं और अनाज के आवंटन में
चोरी में कमी आई हैं. तमिल नाडू और आंध्र प्रदेश पहले से ही व्यवस्था को सुचारू
रूप से चला रहे हैं. इन राज्यों ने तकनीक की सहयता से राशन की दुकान और राशन कार्ड
का कंप्यूटरीकरण किया हैं जिससे रिसाव कम हुआ हैं.
वर्तमान
सरकार “जैम” (जन धन योजना, आधार कार्ड और मोबाइल फोन) के उपयोग से सार्वजनिक वितरण
प्रणाली को व्यवस्थित करने की बात कर रही हैं और साथ ही गरीबी उन्मूलन के लिए भी
इसे उपयुक्त बता रही है. सरकारी रिपोर्ट इस ओर इंगित कर रहे हैं की इससे विश्व
स्तर पर देश की साख बढेगी, डिजिटल इंडिया का सपना पूरा होगा और हितग्राहियों को
पूर्ण लाभ मिल सकेगा. परन्तु यदि तीनो उपायों का मूल्यांकन किया जाए तो उत्साहजनक
परिणाम देखने को नहीं मिलते हैं. आरबीआई, जन धन योजना के आरम्भ से ही इसे लेकर
दुविधा में रहा हैं और रघुराम राजन ने कई बार इसके सफलता को लेकर अपने संशय को
व्यक्त किया हैं. यदि हम बीते एक साल में इस योजना को देखे तो पायेंगे की लोगों के
खाते तो खुले हैं परन्तु उनमे कोई लेन देन नहीं हुआ हैं. कई राज्यों ने लक्ष्य
प्राप्ति की होड़ में ये भी सुनिश्चित नहीं किया की फ़र्ज़ी खाते खुल रहे अथवा पूर्व
के खाताधारकों के ही दुबारे खाते खोल दिए गए है. लेखक ने भोपाल शहर के 5 झुग्गी
बस्तिओं के सर्वेक्षण में यह पाया की आज भी निम्न आय स्तर के लोगों को अपने
वित्तीय लेन देन हेतु बैंक पर भरोसा नहीं हैं. वे साहूकार अथवा माइक्रो फाइनेंस से
लेन देन करना पसंद करते हैं.
आधार
कार्ड को लेकर माननीय सर्वोच्य न्यालय ने अपने एक निर्णय में बताया हैं की इसे हित्ग्राहिओं
को लाभ पहुचने के लिए अनिवार्यता के रूप में नहीं रखा जा सकता हैं. मोबाइल फोन की
यदि बात करे तो इसमें तकनिकी बाधा तो हैं ही, साथ ही साक्षरता की कमी के कारण भी
इसे आधार बनाकर योजना को क्रियान्वित नहीं किया जा सकता हैं. वर्तमान समय में भारत
में सर्वाधिक लोगों के पास मोबाइल फोन जरूर हैं परन्तु नेटवर्क की स्थिति बहुत
ख़राब हैं. ऐसे में “जैम” पर निर्भर करना इस समय में व्यवाहरिक नहीं हैं.
कई
अध्य्यन इस बात की पुष्टि करते हैं की अनाज के आवंटन से गरीबी सर्वाधिक रूप से कम
हो सकती हैं. यदि अनाज के स्थान पर नकद दिया जाता हैं तो इसमें कई समस्याये निहित
हैं जैसे मुद्रास्फीति के लिए इसमें कोई प्रावधान नहीं हैं. साथ ही यह ज़रूरी नहीं
हैं की जिस परिवार को अनाज के लिए रकम दी जायेगी वह उस पैसे का उपयोग इसी काम के
लिए करेगा. तीसरा की इन सभी योजनओं का मूल उद्देश्य गरीबी कम करना हैं परन्तु यह
इस पथ से भटक रहे हैं. सरकार दुबारा से हित्ग्राहिओं के पहचान के आधार पर योजना के
लाभ पहुचने की बात रख रही हैं. पूर्व में कई योजनओं के असफल होने का मुख्य कारण
यही हैं की हित्ग्राहिओं की पहचान नहीं हो पायी हैं. छत्तीसगढ़ में फर्जी राशन
कार्ड बनने की शिकायत आई हैं और सरकार के पास इस वक़्त ऐसा कोई प्रावधान नहीं हैं
जिसके अंतर्गत वह इसे रोक सके. साथ ही सरकार को केवल अनाज खरीदने पर ही ध्यान नहीं
देना चाहिए अपितु इनके सही स्थान पर सही समय पर वितरण पर भी ध्यान देना चाहिए. यदि
पंजाब में अनाज सड़ रहा है और चूहे उन्हें खा रहे, इस बात की खबर मुख्य पृष्ट पर
प्रकशित होती हैं तो बोलांगीर और कालाहांडी में आम की गुठलीओं के खाने और इनसे मृत्यु
की बात भी छपती हैं जो इस बात को और रेखांकित करती हैं की वितरण प्रणाली में दोष
हैं और खाद्द सुरक्षा के जाल को फैलाये रखना अनिवार्य हैं. अमर्त्य सेन ने अपने कई
लेख में इस बात की पुष्टि की हैं की गरीबी के उन्मूलन के लिए वितरण प्रणाली में सुधार
आवश्यक हैं और नीतिगत बदलाव ज़रूरी हैं. वर्तमान परिदृश्य में तकनीक और वर्तमान
व्यवस्था का मिश्रण अति महतवपूर्ण हैं.
(सुबह सवेरे समाचारपत्र के 15 दिसम्बर 2015 के अंक में प्रकशित)
Very well written again! It is almost fashionable these days to talk about big numbers, to flaunt our "development" and to ignore the basic concerns of roti,kapda, makan! We are too busy to speak about these things! But, the reality as you rightly pointed out in your article is of the basic loopholes in policies which carry on, regardless of changes in regime. Our extra grains will keep rotting but there is nobody to ensure that they reach the needy. Keep up the good work, we need to debate these basic issues more!
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