महात्मा गाँधी जी ने कहाँ था की धरती के पास
सबके आवश्यकता के लिए पर्याप्त हैं परन्तु उसके लोभ के लिए नहीं. चेन्नई ने इस कथन
को चरितार्थ कर दिखाया हैं. विगत 15 दिनों से भारी वर्षा के चलते और मनुष्य के लोभ
के कारण आम जन जीवन अस्त व्यस्त हो गया हैं और भयावर चित्र रोज़ टीवी के माध्यम से
हम तक पहुँच रहे हैं. इन सब के बीच बचाव कार्यों में लोगों की प्रतिभागीता और सहस
के कई कहानियां निकल के आ रही हैं. परन्तु बहुत कम लोग मूल कारण की चर्चा कर रहे
हैं और राज्य सरकार भी मौसम की दुहाई देकर अपना पल्ला झाड़ रही हैं. कहा जा रहा हैं
की विगत 100 सालों में इतनी बारिश इस समय में नहीं हुई और यही कारण हैं की बाड़ आई
हैं. शायद प्रशासन यह भूल रहा हैं की उन्होंने कितने अवैध निर्माण कार्यो को सहमति
दी हैं और अडियर नदी के अपवाह क्षेत्र को किस तरह से रौंध के विकास के नाम के तमगे
बनाये गए जिसने नदी को अवस्र्द्ध
कर दिया. जो जलाशय थे उन्हें समाप्त कर
बहु मंजिली इमारते खड़ी कर दी गयी हैं. यही हाल मुंबई का हैं जहां मीठी नदी के
जलग्रह क्षेत्र को समाप्त कर दिया गया. और यदि यह हाल हमारे महानगरों का हैं तो आप
सोच सकते हैं की टियर 2 शहरों का क्या हाल हैं.
पर्यावरण को लेकर समय समय पर आवाज़ उठाई
जाती हैं, परिचर्चा होती हैं, स्कूल में चित्र प्रतियोगिता के लिए यह सबसे
लोकप्रिय विषय हैं, अंतर राष्ट्रिय स्तर की बैठकों में देश प्रमुख एक दो टेलीविज़न
बाइट ज़रूर देते हैं और प्रति वर्ष प्राकृतिक आपदाओं की संख्या बडती जाती हैं और
प्रदुषण से मरने वालों की संख्या में भी वृद्धि होती हैं. अलग अलग संस्थाएं हैं जो
समय समय पर अपने प्रतिवेदन देते हैं और देश विदेश के पर्यावरण पर चिंता व्यक्त
करते हैं. परन्तु ज़मीनी स्तर पर असंख्य जंगल नष्ट किये जा रहे हैं, उद्योगों का
ज़हरीला पानी, पीने के स्त्रोत में मिलाये जा रहे हैं, जितनी लम्बी सड़के नहीं हैं
उनसे कई गुना गाड़ियाँ आ गयी हैं जिससे कई शहरों में हवा सास लेने लायक नहीं बची
हैं, प्लास्टिक इतनी हैं की पुरे धरती को कई बार ढाक सकती हैं और जो ज़मीन में
मिलती हैं और दम घोटती हैं, ध्वनि प्रदुषण की कोई सीमा नहीं हैं और विकास के नाम
पर अंधाधुन्द जलशयों को समाप्त कर निर्माण हो रहे हैं, बाँध बनाये जा रहे हैं.
एक तरफ स्मार्ट सिटी, अमृत शहर, डिजिटल
इंडिया आदि की परिकल्पना हैं और दूसरी ओर उत्तराखंड, बिहार, असम, मुंबई, चेन्नई की
बाड़, भोपाल, कोडाईकनाल की त्रासिदी हैं. पर्यवरण हमेशा अपने आप को संतुलित कर लेता
हैं और जब करता हैं तो विध्वंशकारी हो जाता हैं. आज भी जो योजनाये बनायीं जा रही
हैं उसमे पर्यावरण की अनदेखी कर मन मर्जी के प्रोजेक्ट को हरी झंडी दिखाई जा रही
हैं. मध्य प्रदेश की ही बात कर ले तो पायेंगे की राज्य का 31 प्रतिशत भाग वन
क्षेत्र हैं जो पुरे देश का 12 प्रतिशत हैं परन्तु खनन के मामले में भी राज्य देश
में तीसरे स्थान पर हैं जो लगातार वन क्षेत्र को क्षति पंहुचा रहा हैं. यदि
राजधानी भोपाल में ही देखे तो राष्ट्रिय ग्रीन ट्रिब्यूनल के दिशानिर्देश के बाद
भी कलियासोत क्षेत्र में निर्माण कार्यों को अनुमति दे दी गयी हैं जिस कारण से
बाघों के क्षेत्र में बाधा पहुँच रही हैं. विगत एक माह से कई बाघ शहर में आ गए. यह
सभी बाते इस ओर संकेत कर रही हैं की योजनओं में भारी कमी हैं और कुछ ही वर्षों में
स्थिति सुधारने योग्य नहीं रह जायेगी.
पेरिस में संयुक्त राष्ट्र द्वारा आयोजित सीओपी21 आयोजित की जा रही हैं जिसमे 195 देश
सम्मिलित हैं और रिओ डे जिनेरियो के क्योटो प्रोटोकॉल से प्रारंभ हुआ यह सिलसिला बाली,
कोपेनहेगन, डरबन, दोहा, लिमा होता हुआ पेरिस पंहुचा हैं और जहाँ विक्सित देश बड़ी बड़ी
बातें तो कर रहे हैं परन्तु बांग्लादेश जैसे गरीब देश से अपेक्षा कर रहे हैं की वह कार्बन उत्सर्जन
में योगदान दे. विकास के नाम पर अमेरिका और यूरोप ने पर्यावरण का जमकर दोहन किया हैं
और इनके कार्बन पदचिन्ह विकासशील देशो से बहुत अधिक हैं. यह जो बौद्धिक, राजनैतिक और
आर्थिक चर्चा चल रही हैं वह प्रतिवेदन में ही रह जायेगी और विक्सित देश उपभोग कम करने
की या संरक्षण की बात नहीं करेंगे अपितु विकासशील और गरीब देशो से अपेक्षा रखेंगे की वे
अपने विकास कार्यों में पर्यवरण का ध्यान रखे. कुछ वर्ष पूर्व कार्बन क्रेडिट की बात आई थी
जो भी विकसित राष्ट्रों के हित में थी. ऐसे में इन सम्मेलनों से बहुत कुछ अपेक्षा नहीं रखी
जा सकती हैं क्यूंकि विकासशील और गरीब देश इतने महत्त्वाकांक्षी लक्ष्यों को प्राप्त कर विकास
नहीं कर पायेगा और विकसित राष्ट्र अपने लूट और लालच पर लगाम नहीं लगा पायेंगे.
आज जिस गति से बदलाव आ रहे हैं ऐसे में यह सोचना या कहना की विकास की गति को
धीमा कर पर्यावरण संरक्षण किया जाए तो यह न तो संभव हैं और न ही व्यवाहरिक. वैकल्पिक
योजना की ज़रूरत हैं जो उर्जा भी दे और प्रदुषण न्यूनतम करे. भारत जैसे देश में सौर्य उर्जा का
उपयोग बड़ी आसानी से हो सकता हैं और इसमें राज्य की भूमिका अहम होगी. जो नए सरकारी
निर्माण हो रहे हैं अथवा बड़े उदयोग स्थापित किये जा रहे हैं, वहाँ अनिवार्य रूप से इसी का उपयोग
किया जाना चाहिए. साथ ही घरेलु उपयोग में भी इसे प्रोत्साहित किया जाना चाहिए और इसके लिए
सोलार पैनल को सस्ता करना आवश्यक हैं. जब सोलर कुकर आये थे तो सरकार ने इस पर सब्सिडी
दी थी, आज भी ऐसे ही किसी योजना की आवश्यकता हैं. हमारे देश में पवन उर्जा का भी उपयोग हो
सकता हैं. कृषि अपशिष्ट से ब्रिकेट्टेस बनाये जा सकते हैं जिनका उपयोग ईट के भट्टी में किया जा
रहा हैं. निर्माण कार्यों और शहरों के मास्टर प्लान में जल निकासी के इंतज़ाम किए जाने चाहिए
और सबसे महत्वपूर्ण: “नागरिकों को जागरूक होना होगा”.
( http://epaper.subahsavere.news/c/7533041)
भोपाल के संदर्भ में बात करें तो NGT का roll संदेहास्पद है। कलियासोत पर रोक के बाद फिर अनुमति किसने दी। आपने जो अंत में कहा ना कि लोगों को जागरुक होना चाहिए । बस वही अंतिम है, उसके बाद नियम कानून न हो तब भी सब ठीक हो जाएगा ।
ReplyDeleteआपकी बात सही हे परंतु जागरूक होने भर से काम नहीं चलने वाला,जरुरी हे की हम आत्मीयता से उस कार्य को जानने और करने का प्रयत्न करे जागरूक हे पर शांत हे चुप हे
ReplyDeleteजिसका परिणाम हमारे सामने हे
Very balanced post and very timely too. You have looked at the issue from local, national and international perspective. Keep up the good work!
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