Monday, November 30, 2015

स्मार्ट सिटी स्मार्ट नागरिक (भाग 2)




स्मार्ट सिटी को लेकर दूसरा आलेख लिखना ज़रूरी हो गया था क्यूंकि कई मित्रों और पाठकों से इस पर अलहदा अलहदा प्रतिक्रिया मिली हैं. स्मार्ट सिटी मिशन अपने आप में एक अकेला कार्यक्रम नहीं अपितु इसे अमृत, स्वच्छ भारत मिशन, डिजिटल इंडिया आदि के साथ जोड़कर देखना ज़रूरी हैं. अमृत, प्रोजेक्ट के आधार पर हैं और स्मार्ट सिटी मिशन क्षेत्र के आधार पर हैं परन्तु दोनों का ही धेय्य शहरी क्षेत्र का विकास करना हैं. पूर्व सरकार ने जेएनयुआरएम प्रारंभ किया था जिसके तेहत शहरो के सुविधाओं में सुधार किया गया था. आप इन सभी मिशन को किसी भी नाम से या यूँ कहे नेता के नाम से पुकार लीजिये, इनकी योजना एक जैसी हैं और कमियां भी एक जैसी हैं.
शहरीकरण को लेकर यदि अलग अलग सिद्धांतो को पढा जाये, चाहे भौगोलिक दृष्टिकोण से अथवा आर्थिक दृष्टिकोण से अथवा सामाजिक दृष्टिकोण से, ये पाया जाता हैं की सभी में कहा गया हैं की किसी भी क्षेत्र को एक टापू के रूप में विकसित नहीं किया जा सकता हैं. जब भी किसी शहर को आगे लेकर योजना बनायीं जाती हैं तो पहले आसपास के क्षेत्र (फ्रिंज एरिया) को विकसित करने का मॉडल तैयार किया जाना चाहिए; क्यूंकि ये सामान्य सी बात हैं की यदि भोपाल विकसित हो जाए परन्तु सीहोर, रायसेन, होशंगाबाद पिछड़ा रह जायें तो इन शेहरो के नागरिक भोपाल आयेंगे अपने नौकरी के सिलसिले में और बहुत से लोग यही बस जायेंगे. ऐसा होने से भोपाल कितना ही विकसित क्यूँ न हो जाए, इसकी व्यवस्था चरमरा जायेगी. अभी जो योजना बनायीं गयी हैं उसमे इस बात की ओर ध्यान नहीं दिया गया हैं. साथ ही स्मार्ट सिटी मिशन डॉक्यूमेंट में स्पष्ट रूप से यह लिखा हुआ हैं की रेट्रोफिटिंग (शहर में सुधार), रीडेवलपमेंट (शहर नवीनीकरण), ग्रीनफ़ील्ड डेवलपमेंट की रणनीति अपनाई जायेगी. सरल भाषा में कहे तो मौजूदा व्यवस्था में सुधार और कुछ नए निर्माण किये जायेंगे. इन सभी बातों में बार बार जनता से रायशुमारी की बात कही गयी हैं. कही भी पास के शहरों के विकास की बात नहीं की गयी हैं.
      इन सभी योजनायों के लिए वित्त कहाँ से लाया जाएगा यह मूल बात हैं. सरकार ने स्मार्ट सिटी मिशन के लिए 48 हज़ार करोड़ रुपये अगले 5 साल के लिए आबंटित किया हैं. अमृत के लिए 50 हज़ार करोड़ रुपये अगले 5 साल के लिए आबंटित किये गए हैं. राज्यों को अपनी ओर से भी समान राशी मिलानी होगी और 14वे वित्त आयोग के सुझाव हैं की प्रत्येक राज्य के नगर निगम अपने आय के स्त्रोत बढाए. साथ ही पीपीपी (पब्लिक प्राइवेट पार्टिसिपेशन) को भी अपनाया जा सकता हैं. अब इन सब आकड़ों का आम आदमी से क्या लेना देना? लेना देना यह हैं की हम पर कर बढ़ा दिए जायेंगे जिनके लिए ज़रूरी नहीं हैं की सेवाए भी दी जाए. दूसरा ये की पीपीपी मोड में जिन निजी खिलाड़िओं का चयन किया जाएगा, क्या वो प्रक्रिय निष्पक्ष होगी? क्या हमे कर के साथ इन सेवाओं को प्राप्त करने के लिए दुबारा सेवा शुल्क देना होगा? 100 करोड़ रूपए प्रति शहर केंद्र द्वारा दिया जाएगा और इतनी ही राशी राज्य सरकार द्वार भी मिलायी जाएगी, क्या 200 करोड़ से कुछ सार्थक हो पायेगा?
      यदि मध्य प्रदेश के दो शहरों की ही बात की जाए- भोपाल और इंदौर तो हम पायेंगे की यहाँ के नगर निगम अपने काम सही रूप से नहीं कर पा रहे हैं. भोपाल में एक ओवर ब्रिज विगत 4 साल से बन रहा हैं परन्तु अभी तक काम पूरा नहीं हो पाया हैं और यदि समाचार पत्रों की माने तो इसकी गुणवत्ता इतनी ख़राब हैं की अभी से इसके दिवार में दरार नज़र आ रहे हैं. ये उधारण देना इसलिए आवश्यक हैं की जो सेवाएँ हमे पहले से ही मिलने चाहिए वो अभी नहीं मिल रहे हैं और जब स्मार्ट सिटी, अमृत, डिजिटल इंडिया, स्वच्छता मिशन के नाम से करोड़ो रुपये आयेंगे तो क्या बन्दर बाट नहीं होगा जैसा अभी तक होता आया हैं? नगर निगम के पार्षद एवं महापौर जिन वादों के साथ चुन के आते हैं उनमे से 50 प्रतिशत भी पुरे नहीं किये जाते हैं. अधिकांश सड़कों पर बिजली और प्रकाश नहीं हैं. भोपाल के कई नयी चौड़ी सड़के तो रात के समय जुए और शराब के अड्डे हैं और यही हाल इंदौर का भी हैं. एक भारी बारिश में तथाकथित नाले उफान पर आ जाते हैं और एम पी नगर, न्यू मार्केट जैसे स्थानों पर ही पानी भर जाता हैं और लोग अपने गाड़िओं में धक्के मारते नज़र आते हैं.
      प्रधान मंत्री श्री नरेंद्र मोदी जी के मन की आवाज़ सुनकर तो लगता हैं की वे सम्पूर्ण देश का विकास करना चाहते हैं और गाँव को भी पूर्ण रूप से अपने कार्यक्रमों और योजनाओं से लाभान्वित करना चाहते हैं. परन्तु इस मिशन से गाँव को कोई लाभ नहीं होगा, शायद ग्रामीण अंचल और शहरो के बीच की दूरी और बढ़ जाएगी. पूर्व में भी हमने असंतुलित विकास के मॉडल को अपनाया था परन्तु तब की परिस्थिति और अब की परिस्थिति में ज़मीन आसमां का अंतर हैं. उस समय हमारे पास इतना धन नहीं था की हम सभी क्षेत्रों का एक साथ विकास योजना को क्रियान्वित कर सके परन्तु आज तो हम विश्व में अपना लोहा मनवा चुके हैं और ऐसे में असंतुलित विकास योजना बुद्धिमत्ता नहीं दर्शाता हैं. प्रदेश के मुख्य मंत्री जी ने भी अपने मुख्य मंत्री के रूप में 10 वर्ष पुरे किये हैं और अपने साक्षात्कार में उन्होंने कहाँ की शिक्षा और स्वास्थ्य के क्षेत्र में हम पिछड़े हुए हैं. ऐसे में स्मार्ट सिटी तथा उसे जुड़े कर्येक्रमो को लाना कितना ओचित्यपूर्ण हैं?
      आज जनता को अपने राजनैतिक पसंद नापसंद से ऊपर उठकर केवल अपने और अपने शहर के विकास के लिए सोचना होगा. पुरानी शराब को नए बोतल में परोसकर जनता को छलावे में नहीं रखा जा सकता हैं. जो सेवाए उसका अधिकार हैं उसके लिए सरकार नया नाम देकर और समय नहीं ले सकती. आज राजधानी में लोगों को सरकारी अस्पतालों में 3 से 4 घंटे डॉक्टर के लिए इंतज़ार करना पड़ता हैं, अपने राशन कार्ड, आधार कार्ड, वोटर पहचान पत्र आदि के लिए नगर निगम कार्यालय के चक्कर काटने पड़ते हैं और रिश्वत भी देनी पड़ती हैं. अपनी नाली साफ़ करवाने के लिए पार्षद के हाथ जोड़ने पड़ते हैं, सड़क, पानी तो भूल जाईये.
      हमारे मुख्य मंत्री जी से निवेदन हैं की नीति आयोग की अगली बैठक में वो जब जाए तो ये बात रखे की केवल नामकरण से कुछ नहीं होगा. स्मार्ट सिटी के लिए जो जनता अपने सुझाव दे रही हैं उसे केवल वेबसाइट तक ही न रहे परन्तु योजना में संशोधन कर, जनता की आवाज़ को भी सुने.

Monday, November 23, 2015

स्मार्ट सिटी - स्मार्ट नागरिक




स्मार्ट सिटी मिशन, प्रधान मंत्री मोदी जी के चुनावी वादों में से एक रहा हैं जिसको लेकर वो काफ़ी गंभीर प्रतीत हो रहे हैं. वर्तमान कुछ समय से उनके सभी राष्ट्रीय अंतर्राष्ट्रीय उद्बोधनों में स्मार्ट सिटी के परिकल्पना की बात रहती हैं. स्मार्ट सिटी की कोई सर्व व्यापी परिभाषा नहीं हैं और ये राज्य तथा नागरिकों की परिकल्पना पर निर्भर करता हैं की वे किसे स्मार्ट सिटी मानते हैं अथवा वे अपने शहर को विश्व के किस शहर के जैसा देखना चाहते हैं. यदि केंद्र सरकार के मिशन को पढा जाए तो यह समझ में आती हैं की सरकार सम्पूर्ण आधुनिक आधारभूत सेवाओं से लेज़ शहर चाहते हैं, जो आने वाले कई दशक तक जनसँख्या के बढते आकार के अनुरूप अपने नागरिकों को सर्वोत्तम सेवाए दे सके. यदि आप नागरिकों की दृष्टिकोण को भी उसमे देखे तो पायेंगे की वो बहुत अधिक अलग नहीं हैं सरकार के योजना से, अंतर इतना हैं की सरकार विश्व स्तरीय बात कर रहा हैं और नागरिक आधारभूत सेवाओं की जो स्मार्ट सिटी की कल्पना में निहित हैं.
भारत में कोई भी मिशन अथवा जन कल्याणकारी कार्यक्रम प्रारंभ किया जाए और उसमे राजनीति न हो, यह संभव नहीं हैं. जो भी दल सत्ता में होती हैं वह केवल गुणों की बात करती हैं और सभी विपक्षी दल केवल अवगुणों की बात करती हैं, परन्तु वास्तव में यह सब इतना श्वेत- श्याम नहीं होता हैं. इस मिशन के साथ भी यही दुर्भाग्य हैं की राजनैतिक दल अपने हितो की रक्षा में आम नागरिक की सुविधा और विकास को कही भूल न जाए. यह जो विरोधाभास सरकार की योजना और आम जनता के मन की बात में हैं वो शायद इसलिए हैं क्यूंकि आम आदमी अपने जीवन में आज भी सड़क, बिजली, पानी की समस्यायों से जूझ रहा हैं. चुनावी वादे केवल चुनावों तक ही सिमित रह जाते हैं और ज़मीन सच्चाई कुछ और ही होती हैं. और इसके लिए नागरिकों को यह समझना बहुत आवश्यक हैं की राजनैतिक दल कोई भी हो, योजनाओं को संचालित करने का तथा क्रियान्वित करने का काम प्रशासन एवं उसके अधिकारी- कर्मचारी ही करते हैं. राजनैतिक इच्छा शक्ति का होना बहुत ज़रूरी हैं परन्तु प्रणाली यदि भ्रष्ट हैं कोई भी कार्यक्रम कितना ही अच्छा क्यूँ न, हो बहुत सफल नहीं हो पायेगा और इसके लिए मनरेगा एक बहुत बड़ा उदहारण हैं.
स्मार्ट सिटी में बेहतर यातायात, सतत बिजली और पानी की पूर्ती, बेहतर अपशिष्ट प्रबंधन, मल निकासी की बेहतर प्रणाली, नागरिकों के स्वास्थ्य के लिए प्रदुषण को कम करने के उपाय, मनोरंजन के बेहतर साधन, पार्किंग की सुविधा आदि की बात कही गयी हैं. और इस हेतु विभिन्न राज्यों ने योजना बनाना प्रारंभ कर दिया हैं. पूरे देश से कुल 100 शहरों को स्मार्ट सिटी में परिवर्तित किया जाएगा जिसमे से 20 शहरों पर पहले चरण में काम होगा और दुसरे  चरण में शेष 80 शहरों को विक्सित किया जाएगा. उत्तर प्रदेश से सर्वाधिक 13 शहरों को इस सूचि में रखा गया हैं. मध्य प्रदेश के 7 शहरों को स्मार्ट सिटी बनाया जाएगा जिनमे हैं राजधानी भोपाल, उदयोग नगरी इंदौर, शाही नगरी ग्वालियर, सिंघस्त की नगरी उज्जैन जिसको लेकर शंका थी, जबलपुर, सतना, और सागर. मुख्य मंत्री जी उज्जैन के स्थान पर बुरहानपुर चाहते थे क्यूंकि उनका मानना था की सिंघस्त के चलते उज्जैन नगर काफ़ी विक्सित हो जाएगा परन्तु अंत में उज्जैन को ही शामिल किया गया. भोपाल के लिए योजना बड़ी तेजी से बनायीं जा रही हैं और उम्मीद हैं की वर्ष 2016 तक प्रारंभिक कार्य प्रारंभ हो जाएगा.
अब इस सब में कुछ प्रश्न बड़े तेजी से लोगों के मन में आ रहे हैं जिनका समाधान जरुरी हैं क्यूंकि शहर इन्ही का हैं. केंद्र सरकार ने इस मिशन के लिए कुल 48000 करोड़ रुपये 5 वर्ष के लिए रखे हैं जो की 100 करोड़ प्रति शहर प्रति वर्ष के लिए हैं. इतनी ही धनराशी राज्य सरकार को भी मिलनी होगी. अब प्रश्न यह हैं की मध्य प्रदेश जैसी सरकार इतना बड़ी राशि कहाँ से लाएगी क्यूंकि इस वक़्त प्रदेश के ऊपर कर्ज बहुत अधिक हैं. दूसरा अभी तक जो राज्य सरकार और नगर निगम ने बैठके की हैं परियोजना को लेकर वे बहुत अधिक सफल नहीं रही हैं क्यूंकि सभी हितग्राहिओं को शामिल नहीं किया गया. समाचार पत्रों की माने तो एक कंपनी ने तो 5 करोड़ की केवल बैठक के नाम पर ही सरकार को चपत लगा दी. इसीलिए बहुत ज़रूरी हैं की सरकार राजनीति से ऊपर उठकर सभी लोगों को मंच दे क्यूंकि केंद्र सरकार की योजना में नागरिकों की भागीदारी को महत्व दिया गया हैं.
तीसरा महत्वपूर्ण प्रश्न हैं की वर्तमान सेवाओं को ठीक करने के लिए सरकार क्या कदम उठा रही हैं? आज भी बहुत से अवैध निर्माण हो रहे हैं जिनकी ओर निगम उदासीन हैं. पार्किंग के लिए दी गयी ज़मीन पर निर्माण कर दिए गए हैं जिस कारण आये गए दिन जाम लग जाते हैं, जिसके लिए भोपाल के एम पी नगर को उद्धरण के रूप में देखा जा सकता हैं. नर्मदा जल के लाइन बिछ गयी हैं परन्तु पानी का दूर दूर तक कोई आस दिखाई नहीं दे रही हैं. बिजली चोरी जोर शोर से की जा रही हैं और केवा झुग्गिवासिओं द्वारा ही नहीं परन्तु कई पोश कॉलोनी में भी यही आलम हैं. जगह जगह पानी के पाइप फूटे हुए हैं और सड़के धुल रही हैं. मल निकासी की समस्या बहुत बड़ी हैं भोपाल में क्यूंकि जब भी किसी कॉलोनी अथवा अन्य निर्माण कार्य की योजना की जाती हैं तो इसे लेकर केवल खाना पूर्ति की जा रही हैं. नालों की स्थिति भी बहुत ख़राब हैं, थोड़े से बारिश में शहर लबालब हो जाता हैं. यातायात सेवाओं के मामले में तो भोपाल बहुत ही पीछे हैं और येही कारण हैं की व्यक्तिगत वाहनों की संख्या बड गयी हैं जिससे न केवल पार्किंग, जाम की समस्या उत्पन्न हो रही हैं परन्तु प्रदुषण का स्तर भी बहुत बड़ गया हैं. केंद्र सरकार की योजना में साइकिल ट्रैक्स को लेकर भी बात की गयी हैं जो भोपाल के लिए बहुत ज़रूरी हैं. शहर में जो ब्रिज हैं उनका रखा रखाव नहीं किया जा रहा हैं और प्रति दिन सैकड़ों लोग अपनी जान जोखिम में डाल रहे हैं. अपशिष्ट प्रबंधन तो हैं ही नहीं और भानपुरा पर यदि आप चले जाये तो 2 मिनट भी खड़े रहना दूभर हैं. सरकार सभी कार्यो को ई सेवा में परिवर्तित कर रही हैं जिसके लिए इन्टरनेट सुविधा मूलभूत हैं परन्तु आलम यह हैं की आधे से ज्यादा शहर में ब्रॉडबैंड सुविधा नहीं हैं. सड़कों को लेकर जितनी कम बात की जाए उतना अच्छा हैं क्यूंकि आज सड़क बनती हैं और परसों खुद जाती हैं और 2 दिन बाद उसपर मलबा चढ़  दिया जात हैं ताकि आप अपनी गाडी में बैठ उठ की सवारी का मजा ले सके.
चौथा प्रश्न हैं की नागरिकों की भूमिका क्या हैं, इस पूरे मिशन में- सरकार और तंत्र को गाली देना अथवा अपने दायित्वों का पालन करना और जहाँ ज़रूरत पड़े वहा आधिकारों का उपयोग कर अपने शहर की खूबसूरती और रूह को बनाये रखना? लेखक और उसके साथिओं द्वारा आज से कुछ वर्ष पूर्व एक व्यवस्था प्रारंभ की गयी थी की हर घर से कचरा एकत्रित करना और उसे बायोडिग्रेडेबल और नॉन बायोडिग्रेडेबल में बाटना ताकि अपशिष्ट प्रबंधन किया जा सके. इसके लिए एक आदमी को लगाया गया था और रेह्वासिओं से यह निवेदन किया गया था की वे अपने घर का कचरा हमारे व्यक्ति को ही दे. इसके लिए किसी भी प्रकार का कोई शुल्क नहीं लिया जा रहा था और हमने इसमें विज्ञानं के छात्रों की मदद ली थी. कुछ महीने तो ये काम अच्छा चला परन्तु फिर एक आई ए एस साहब के कारण सारा कार्येक्रम स्वः हो गया. उन्होंने इसको लेकर बहुत हल्ला किया और हमारी साथी जो ये एकत्रित करने ठेला लेकर जाती थी उसे भी बहुत अपशब्द कहे. और ये बात अरेरा कॉलोनी की हैं और जो लोग भोपाल को जानते हैं वे समझ सकेंगे के यहाँ किस प्रकार के लोग रहते हैं. ये तब किया गया जब नगर निगम ने घर से कचरा उठाने का काम प्रारंभ नहीं किया था. आज जब घरों से कचरा लिया जा रहा हैं तो भी स्थिति बहुत बेहतर नहीं हो पायी हैं क्यूंकि मानसिकता वाही पुरानी हैं. यही हाल स्वच्छ भारत मिशन का भी हुआ जिसमे लोगों ने सेल्फी तो ले ली परन्तु गन्दगी फ़ैलाने का कम वैसे ही हैं. येही कुछ हाल पार्किंग को लेकर भी हैं. हमारा बस चले तो हम अपनी गाडिओं को दुकानों के अन्दर ही ले जाकर खड़ी कर ले और यदि बड़ी गाडी हैं तो बात ही क्या. सड़क के लिए कर दिया हैं तो इसलिए वो हमारी बपोती हैं. और ऐसे कई चीजे हैं जो हम कर रहे हैं अपने सुन्दर भोपाल को गन्दा करने के लिए.
स्मार्ट सिटी मिशन बहुत अच्छा हैं, इसकी उत्पत्ती पर न जाकर और युपीए बनाम एनडीए की बहस 
में न पड़कर, हम यदि इसे केवल शहरीकरण की दृष्टिकोण से देखे तो बेहतर होगा. साथ ही सरकार 
की भूमिका इसमें अहम होगी यह स्पष्ट हैं और इसीलिए ज़रूरी हैं की काम देते समय सरकार भाई 
भतीजा वाद न करके केवल शहर और नागरिकों की बात सोचे. हर शहर की अपनी एक आत्मा होती 
हैं जो उसे नायाब बनती हैं, ऐसे ही हमारे भोपाल के गंगा जमुनी सभ्यता, इसकी हरी भरी पेड़ो से 
ढका वातावरण, हमारे तालाब इसकी पहचान हैं जिसके इर्द गिर्द ही योजना बनायीं जानी चाहिए. 
आने वाले समय की जनसँख्या वृद्धि को भी ध्यान में रखा जाए और सैटेलाइट टाउनशिप को इसी 
प्रकार विक्सित करे. नागरिकों को अपने हितो की रक्षा करनी होगी क्यूंकि आने वाली पीड़ी के लिए 
ये ही जिम्मेदार हैं.
 
http://epaper.subahsavere.news/c/7327017 
  

Monday, November 9, 2015

पाटलिपुत्र से हुआ नया सवेरा




बिहार चुनाव के परिणाम आ गए हैं और नितीश कुमार जी तीसरी बार मुख्य मंत्री पद पर आसीन होंगें. बिहार सदैव से ही ज्ञान और परिवर्तन की भूमि रही हैं. स्वाधीनता संग्राम हो चाहे जे पी नारायण का आन्दोलन, बिहार बदलाव का अग्रसर रहा हैं. वर्तमान चुनाव के परिणामो ने भी यह सिद्ध किया हैं की बिहार की जनता राजनैतिक रूप से परिपक्व हैं और यह जानती हैं की विकास के लिए क्या ज़रूरी हैं.
यह चुनाव कई माईनो में प्रथम रहा हैं. विगत 2- 3 दशकों में पहली बार किसी राज्य के चुनाव में प्रधान मंत्री जी का इतना हस्तक्षेप रहा और इतनी सभाए ली गयी. बड़े दिनों बाद किसी राजनेता की किस्मत को इतने बड़े पैमाने में बदलते देखा. कई चुनाव बाद किसी दल या व्यक्ति के पक्ष में मत पड़े. बहुत दिनों बाद पत्रकारों ने ज़मीनी हकीकत जानने की ज़रूरत महसूस की. कई चुनावों के बाद खालिस राजनीति देखने को मिली. बिहार चुनाव के दूरगामी परिणाम देखने को मिलेंगे. कोई भी चुनाव आखरी चुनाव नहीं होता हैं और कोई भी परिणाम आखरी परिणाम नहीं होता. परन्तु इसके बावजूद पश्चिम बंगाल, उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़, पंजाब के चुनवों पर बिहार चुनाव की छाप देखने को मिलेगी.
महागठबंधन की जब तैय्यारी चल रही थी तो कई राजनैतिक विश्लेषकों का मानना था की यह चलेगी नहीं क्यूंकि वर्तमान में तीसरा फ्रंट काम नहीं किया हैं. जब समाजवादी पार्टी के मुखिया मुलायम सिंह यादव ने इस गठबंधन से दुरी बना ली तो इस तर्क को और शक्ति मिली. जब सीटों के बटवारे की बात हुई और लालू जी और नितीश जी की पार्टी ने सामान सीटों पर चुनाव लड़ने की बात कही तो लगा की क्या लालू यादव, नितीश जी के विकास के कंधे पर बैठ अपनी राजनीति चमकाना चाहते हैं? कांग्रेस के लिए भी यह चुनाव अहम् था क्यूंकि यह वह राज्य हैं जहाँ सालों कांग्रेस ने राज्य किया परन्तु विगत कई दशकों से कांग्रेस का सूपड़ा साफ़ हो गया. राहुल जी गठबंधन के बहुत बड़े समर्थक नहीं रहे हैं और उनका मानना हैं की एकला चोलो रे अधिक ठीक हैं पर स्थानीय नेताओं के दबाव में उन्होंने भी गठबंधन का समर्थन किया और 41 सीटो में से 27 सीटों पर कांग्रेस विजयी रही हैं.
अब जब चुनाव समाप्त हो गया हैं तो आवश्यकता हैं की भविष्य की बात की जाए और सरकार के प्राथमिकताओं तय किये जाये. नितीश जी ने बड़ी चतुराई से लालू जी बनाम मोदी जी का चुनाव प्रचार करवाया और दोनों ही नेताओं ने जमकर राजनैतिक असहिषुनता दिखाई और अमर्यादित भाषा का जमकर प्रयोग किया. नितीश जी ने अपने विकास पुत्र का चेहरा आगे बढ़ाते हुए सकारात्मक प्रचार किया. इसी तारतम्य में यह ज़रूरी हैं की वे अब शिक्षा और स्वास्थ्य पर ध्यान केन्द्रित करे. बिहार अब बीमारू राज्यों का अग्रणी नहीं रहा हैं और रोड के मामले में तो वह बहुत आगे निकल गया हैं. परन्तु यदि हम वोट का थोडा विश्लेषण करे की किस समुदाय से महागठबंधन को अधिक मत मिले हैं तो हम पायेंगे की आज भी दलित, अति पिछड़ा, पिछड़ा, अल्पसंख्यक वर्ग ने ही इन्हें सबसे अधिक मत दिए हैं. इससे यह बात स्पष्ट हैं की आज भी एक बहुत बड़ा वर्ग हैं जो विकास से अछुता हैं और जिसके आकांक्षा मूलभूत सेवाओं की ही हैं. केंद्र सरकार के लिए भी यह सीधा सन्देश हैं की वे स्मार्ट सिटी और मेक इन इंडिया के चकाचोंध में कही इस वर्ग की उपेक्षा न हो जाए. लालू जी एक खालिस राजनेता हैं जो जे पी युग से आये हैं जनता की नब्ज़ पकड़ना जानते हैं. साथ ही उनका पिछला रिकॉर्ड बहुत साफ़ सुथरा नहीं रहा हैं, ऐसे में नितीश जी के लिए यह चुनौती हैं की वे इस गठबंधन को 5 वर्ष चलाये और जिस आकांक्षा से बिहार की जनता ने उन्हें पुनः अपना मुखिया बनाया हैं उस पर वे खरे उतरे.
कांग्रेस के लिए यह चुनाव एक अप्रत्यक्ष वरदान साबित हुआ. चूँकि पिछले कई चुनाव से पार्टी का प्रदर्शन निराशाजनक रहा हैं इसलिए किसी को भी बहुत अधिक अपेक्षाएं नहीं थी. ऐसे में पिछले बार के 5 के मुकाबले 27 सीट जितना कार्यकर्ताओं के मनोबल के लिए बहुत अच्छा हैं. साथ ही पार्टी को क्षेत्रीय लोक बल वाले नेताओं को प्राथमिकता देना चाहिए, यह भी स्पष्ट हो गया हैं.
यह चुनाव मोदी जी एवं उनके टीम के लिए निर्णायक रहा हैं. चूँकि प्रधान मंत्री जी को चुनाव में पार्टी के मुख के रूप में प्रस्तुत किया गया इसलिए परिणाम की ज़िम्मेदारी भी उन्हें लेनी होगी. यह स्पष्ट हैं की जनता धर्म और गैर ज़रूरी बातों में नहीं आने वाली हैं. इसलिए केवल चुनावी सभाओं में विकास की बात से कुछ नहीं होगा, ज़मीन पर इसे फलीभूत करना भी आवश्यक हैं. साथ ही पार्टी के मुखिया को सोच समझकर बयान देने चाहिए क्यूंकि इसके विदेश निति पर भी प्रभाव देखने को मिलेगा. केंद्र सरकार राज्य सभा में अल्पसंख्या में हैं और विभिन्न बिल पारित करने में उसे अपने विपक्ष के सहयोग की आवश्यकता होगी. ऐसे में ज़रूरी हैं की सरकार विरोध के स्वर को सुने, न की उसका उपहास करे. प्रजातंत्र में सहकारी संघवाद की अव्य्शाकता हैं और इसके लिए राज्य और केंद्र सरकारों में राजनैतिक भिन्नता होनी चाहिए. इस भिन्नता को भी केंद्र सरकार को स्वीकारना होगा.
      आम जनता पर भी एक बहुत बड़ी जवाबदेही हैं. आज सम्प्रेषण के बहुत सुविधाओं के आने से जनता, मतदाता या आम नागरिक न रहकर, राजनैतिक प्रशंसक बन गयी हैं जो बहुत हानिकारक हैं. ऐसे में तर्क कही गुम हो जाता हैं और केवल अंध भक्ति रह जाती हैं. राजनैतिक दलों के लिए भी अव्य्षक हैं की वे फ़र्ज़ी नामों से सोशल मीडिया में अपनी बात न रखे और भड़काऊ प्रचार से बचे. प्रजातंत्र में जनता को जनार्धन कहा गया हैं परन्तु वास्तविकता यह हैं की वह केवल मतदान के लिए होती हैं. बिहार चुनाव में जनता सही में जनार्धन हैं और आगे भी वह प्रशासक का पथ प्रदर्शन करती रहे और अपने संविधानिक अधिकारों के लेकर सचेत रहे. यदि सरकार अपने धर्म से भटकती हैं तो जनता ही वह मार्गदर्शक हैं जिसे सरकार को चेताना होगा.


Monday, November 2, 2015

वर्तमान परिवेश में “कुंठा”


दुष्यंत कुमार त्यागी की लोकप्रिय कविता हैं “कुंठा” जो व्यक्ति के अंतर कलह को बहुत सुन्दर रूप से चित्रित करती हैं. आज के सामाजिक, राजनैतिक परिवेश कुछ इसी कुंठा को प्रतिबिंबित कर रहा हैं. विगत कई दिनों से कई साहित्यकारों ने फिर फिल्मकारों ने और अब सैनिकों ने राष्ट्र सम्मानों को लौटना शुरू कर दिया हैं. इसको लेकर दो बौधिक धड़ो में द्वन्द जारी हैं. एक वर्ग जो अपने आप को इन सभी का समर्थन करता पा रहा हैं क्यूंकि उसके अक्षुण्णता पर उसे प्रश्न दिख रहे हैं और वो अपने आप को खुलकर व्यक्त कर पाने में अपने आप को असक्षम पा रहा हैं. वाही एक बहुत संकीर्ण मानसिकता वाला धड़ हैं जो इन सभी राष्ट्र सम्मान से सम्मानित लोगों को केवल लोकप्रियता का लोलुप बता रहा हैं और देश द्रोही भी बता रहा हैं.
आज देश में अलगाववाद बहुत तेज़ी से बढ रहा हैं और सत्ताधारी पार्टी जो बहुमत से आई हैं अपने रुख को स्पष्ट नहीं कर पा रही हैं. सब जानते हैं की बीजेपी हिन्दू राष्ट्र का निर्माण करना चाहती हैं या यूँ कहे की चुनावों के समय वह अपना यह बिगुल बजाती हैं. ये एक अलग बात हैं की उसके चुनावी घोषणा पत्र में वो कही न कही तुष्टिकरण की राजनीति करती दिखती हैं. ऐसे में यह स्वाभाविक हैं की उसके द्वयं दर्जे के नेता और कार्यकर्ता सत्ता में आते ही हिन्दू वाद का नारा बुलंद करेंगे. परन्तु क्या इसके लिए वैचारिक रूप से आपके प्रतिद्वन्दियो का रक्त बहाना अनिवार्य हैं? विगत कुछ महीनो से स्वछन्द विचारधारा के समर्थको की जान ली गयी हैं जिसमे नरेन्द्र दाभोलकर, गोविन्द पंसारे और प्रोफ कलबुर्गी के नाम प्रमुख हैं और प्रोफ कलबुर्गी के हत्या ने ही कही न कही बुद्धिजीविओं को चेताया हैं. और सम्मान वापसी का ये सिलसिला चल पड़ा.
यदि सरकार इन असंतुष्ट लोगों की चिंताओं को सुनकर अपनी संवेदना दे देती, तब शायद यह बात इतना तूल न पकड़ता. परन्तु वर्तमान में सरकार का रवैय्या इस प्रकार का हैं की हम राजा हैं और आप सभी हमारे रियासत की जनता, जिसे हमारी हर सही गलत बात को अपनी प्रत्यक्ष परोक्ष सहमति देनी ही होगी. परन्तु शायद सत्ता धरी ये भूल रहे हैं की यह न हीं मुस्सोलीनी की इटली हैं और न ही हिटलर की जर्मनी. यह भारत हैं जो विश्व का सबसे बड़ा लोकतंत्र हैं और लोकतंत्र में जनता जनार्धन ही सब कुछ हैं. इसलिए सरकार इसे देश द्रोह नहीं करार दे सकती या इतनी छोटी बात नहीं कह सकती की ये सारे विद्द्वान केवल टीवी और समाचार पत्रों में अपना नाम देखना चाहते हैं. कुछ उपन्यास लेखको ने तो इस महतवपूर्ण मुद्दे को अंग्रेजी बनाम हिन्दी लेखकों का द्वन्द बता दिया. वे प्रधान मंत्री जी की तारीफ करते समय यह भूल गए की वे भी अंग्रेजी में ही लिखते हैं.
किसी भी समाज में लेखक या यूँ कहें की बुद्धिजीवी वर्ग हमेशा परिवर्तन अथवा गड़बड़ी का शंखनाद करता हैं. हमारे देश में भी जब भी लोकतंत्र पर हमला हुआ हैं, ये ही वह वर्ग हैं जिसने विरोध किया और आम जन मानस को चेताया. आज भी यह वर्ग ये ही काम कर रहा हैं. और इस लेखक का मानना हैं की बुद्धिजीवी बौधिक तर्क से अपना मत मनवा सकते हैं. परन्तु आज जो दक्षिण पंथी समर्थक हैं वे बौधिक तर्क के लिए तैयार नहीं हैं. वे जुमलो, नारों और वाक्पटुता के धनि प्रधान मंत्री जी का सहारा ले रहे हैं परन्तु तार्किक बातों से बच रहे हैं. प्रधान मंत्री जी को इस चर्चा में सम्मिलित करना इसलिए आवश्यक हैं क्यूँ की  वे कर्ण धार हैं विकास के, ऐसा वे लगातार कह रहे हैं. वे बिहार के चुनावों में लोकतंत्र के मर्यादाओं को तोड़ते हुए कई बयां दे रहे हैं जिनके दीर्घकालीन प्रभाव भयावर हो सकते हैं, परन्तु उनके पास 10 मिनट का समय नहीं हैं इन लेखको, फिल्मकारों और सैनिकों के सन्दर्भ में सरकार की स्थिति स्पष्ट करने के लिए. उनके पार्टी के अध्यक्ष बीजेपी के विरोध में मत देने को पाकिस्तान का समर्थन बता सकते हैं परन्तु वे साहित्यकारों से मिल नहीं सकते.
इन सभी घटनाक्रम के दो ही अर्थ हो सकते हैं- पहला की सरकार अपने दुसरे और तीसरे पंक्ति के नेताओं द्वारा की गयी बातों का समर्थन करते हैं और चाहते हैं की उनके विरोधी अल्पसंख्यकों की गिनती में आ जाए अथवा इसके परिणाम के लिए तैयार रहे. दूसरा अर्थ यह हैं की सरकार के पास कोई रणनीति ही नहीं हैं और न ही उसके पास विद्वान हैं जो उनके विरोधिओं का मुकाबला कर सके.
यह कतई आवश्यक नहीं हैं की देश का प्रत्येक व्यक्ति इन विरोधी साहित्यकारों, फिल्मकारों और सेनानिओं से सहमत हो परन्तु हर देशभक्त इनका विरोधी होगा यह भी आवश्यक नहीं हैं. लोकतंत्र का अर्थ ही यह हैं की हम अपने विचार रखने के लिए स्वतंत्र हैं. और साथ ही अपने से भिन्न विचारो को सुनने समझने के लिए भी तैयार रहे. कट्टरपंथ का लोकतंत्र में कोई स्थान नहीं हैं. साथ ही प्रधान मंत्री जी अपने असंख्य विदेश यात्राओं में जो देश को लेकर गुलाबी सपने बुन रहे हैं, उसमे तो साक्षी महाराज और ओवेसी दोनों का ही स्थान नहीं हैं. यदि उनके मित्र बराक के ही देश की बात करे तो वो भी अपने विकास के शीर्ष पद पर सहिषुनता और वैचारिक स्वतंत्रता से ही पंहुचा और आज वह एक युद्ध पोषित अर्थव्यवस्था भी इसीलिए बन गयी क्यूंकि उसने इस वैचारिक स्वतंत्रता की छूट समाप्त कर दिया.
जब ये सरकार सत्ता में आई थी और मंत्रिओं की नियुक्ति हो रही थी, तब ही यह स्पष्ट हो गया था की प्रधान मंत्री जी के पास मजबूत दूसरी पंक्ति नहीं हैं जिनका बुद्धिजीविओं में स्वीकार्यता हो. वर्तमान राजनैतिक और सामाजिक गतिरोध से यह बात और स्पष्ट हो रही हैं. यदि वे भारत को विश्व के शीर्ष पर देखना चाहते हैं तो स्मार्ट सिटी, डिजिटल इंडिया, मेक इन इंडिया की नीव वे अलगाववाद पर नहीं रख सकते हैं.