सर्वप्रथम आप सभी को
विजय दशमी की शुभकामनाये और आशा करती हूँ की सभी की नवरात्री, दुर्गा पूजा अपने
परिवार जनो और मित्रों के साथ आनंदमयी रही होगी. मेरे लिए पूजा के ये 4 दिन वर्ष
भर के सबसे सुखद दिन होते हैं. इस बार के पूजा से धर्म, परम्परा के बारे में कुछ
नयी बातें ज्ञात हुई और कुछ बड़े रोचक वक्तव्य भी पढने को मिले दशानन के सम्बन्ध
में. इन पर चर्चा किसी और रोज़, आज हिन्दी भाषा को लेकर अपना तीसरा और अंतिम आलेख
लिख रही हूँ. आज हिन्दी भाषा का शिक्षा के साथ सम्बन्ध को लेकर अपने विचार आप के
समक्ष रखने की चेष्टा करुँगी.
मैंने
हिन्दी भाषा से सम्बंधित अपने पूर्व के दो आलेखों में राजनीति और वर्तमान
परिस्थितिओं को लेकर चर्चा की थी जो कुछ पाठकों और मित्रों को सतही लगी और कुछ को
अपरिपक्व. इस पर मेरी कोई टिपण्णी सही नहीं होगी. इसलिये आज कोशिश रहेगी की
व्यवस्थित रूप से शिक्षा के क्षेत्र में हिन्दी भाषा के उपयोग एवं प्रासंगिकता पर
मत रखूँ. जैसा की मैंने पहले भी कई बार लिखा हैं की मेरी सम्पूर्ण शिक्षा आंग्ल
भाषा में हुई और हिन्दी भाषा से निकटता एवं प्रेम का सम्बन्ध कुछ 15 वर्षो का हैं
जब से मैंने एक शिक्षक के रूप में अपना कार्य प्रारंभ किया. इसलिए हिन्दी भाषा में
अर्थशास्त्र, जो मेरा विषय हैं, की पुस्तके मैंने वर्ष 2000 में पहली बार पढा और
पाया की आंग्ल भाषा की पुस्तकों की गुणवत्ता अधिक हैं. जिन भारतीय लेखकों की भी
टेक्स्ट बुक्स अंग्रेजी से हिन्दी में रूपांतरित कर लिखी गयी, वे भी अंग्रेजी में
अच्छी हैं. और तब मुझे लगा की अंग्रेजी न जानने से मेरे छात्र बहुत कुछ से वंचित
थे. और तब से प्रारंभ हुई मेरी चेष्टा की मैं अपने छात्रों को हिन्दी भाषा में वो
सब दूं जो मैंने अंग्रेजी पुस्तकों से प्राप्त किया.
धीरे
धीरे जैसे जैसे कार्य क्षेत्र में वृद्धि हुई और अन्य विषय के शिक्षकों के साथ
संवाद स्थापित हुआ तो पता लगा की विज्ञान में स्थिति और ख़राब हैं. जिन शिक्षकों ने
अपनी सम्पूर्ण शिक्षा हिन्दी भाषा में पूरी की हैं, उनका भी मत हैं की तकनिकी शब्द
अंग्रेजी में ही बेहतर लगते हैं और सरल भी. और सबसे महतवपूर्ण बात ये की जब बाहर
काम के लिए छात्र जाता हैं तो वहा अंग्रेजी शब्दों का ही प्रयोग होता हैं. एक
प्रसंग याद पड़ता हैं, हमारे एक छात्र का जो बीएससी करने महाविद्द्यालय में आया और
कुछ ही दिनों में सारे शिक्षक उसकी कक्षा लेने से घबराने लगे और उसका कारण था की
वह शुद्ध हिन्दी में ही अपनी कक्षाए चाहता था और तकनिकी शब्दों के लिए भी उसे
आंग्ल भाषा का उपयोग पसंद नहीं था. शिक्षकों ने बड़ी कठिनाई से उसे 5 वर्ष पढाया.
इस प्रसंग का उल्लेख इसलिए आवश्यक हैं क्यूँ की शिक्षकों को यह बात भली भांती पता
हैं की जब वह किसी भी क्षेत्र में नौकरी करेगा तो ये हिन्दी भाषा का प्रेम उसके
लिए समस्या बन जायेगा. इसमें एक तकनिकी समस्या भी हैं. विश्विद्द्यालय में
स्नातकोत्तर स्तर की पढायी अंग्रेजी में ही होती हैं, खासकर विज्ञान में. अब जो
छात्र स्नातक स्तर तक हिन्दी भाषा में पढता आया हो वह अचानक से कैसे अंग्रेजी
माध्यम में पढेगा और अपनी अभिव्यक्ति करेगा? खैर आज के हालात में छात्र हिंगलिश में
उत्तर देते हैं और अच्छे नम्बरों से पास भी होते हैं.
ऐसे
में हम क्या करे जो हिन्दी भाषा को भी जीवित रखे और छात्रों को नौकरी के लिए भी
तैयार करे? मेरा मानना हैं की सरकार को अहम् भूमिका निभानी होगी ऐसे में. हमारे
पास कई ऐसे सेवानिवृत शिक्षक हैं जिनकी हिन्दी भाषा और अपनी विषय दोनों पर ही
अच्छी पकड़ हैं, इन लोगों का हमे उपयोग करना होगा. सरकार यदि इन वरिष्ठों से बात
करे तो वे विभिन्न भाषाओँ के चुनिन्दा, मानक पुस्तकों का हिन्दी में अनुवाद करा,
सभी महाविद्द्याल्यों के पुस्तकालय में रखवा सकते हैं. इससे दो समस्याओं का समाधान
मिल जाएगा, पहला छात्रों को उत्कृष्ट पुस्तकों को पढने का अवसर मिलेगा और साथ ही
कुंजी बाज़ार का एकाधिकार समाप्त होगा. साथ ही छात्रों को अंग्रेजी भाषा से जोड़ना
होगा,बिना हिन्दी भाषा को द्वयं दर्जे का बताते हुए. आज कही न कही हिन्दी माध्यम
से पढने वाले छात्रों में एक हीन भावना का बोध होता हैं क्यूंकि नौकरी के बाज़ार
में वह अपने आप को कमतर पाता हैं. और इसलिए वह अपने हिन्दी सोच को अंग्रेजी भाषा
में ढलकर प्रस्तुत करता हैं जो दोनों ही भाषाओँ का अपमान हैं.
आज
के जीवन और परिस्थितिओं का यह कटु सत्य हैं की अंग्रेजी रोजी रोटी की भाषा बन गयी
हैं इसलिए छात्रों के एक तबके को इस भाषा से दूर रखना उनके साथ अन्याय होगा,
परन्तु यदि केवल अंग्रेजी माध्यम और अंग्रेजी भाषा को ही आगे बढाया जाए तो हिन्दी
भाषा के भविष्य का क्या होगा? ज़रूरी हैं की हिन्दी भाषा को नौकरी की भाषा बनायीं
जाए और इसके लिए ज़रूरी हैं की भाषा का विकास हो और समय के साथ नए शब्दों को
शब्दवली में जोड़ा जाए. यदि विश्व स्तर पर हिन्दी भाषा को फ्रेंच और मेंडरिन भाषा
जैसी स्वीकार्यता प्राप्त होगी तो छात्रों और युवाओं के लिए सहायक होगा. साथ ही जो
साथी हिन्दी भाषा में अनुवाद कर रहे हैं और पुस्तक लिख रहे हैं वे गुणवत्ता का
ध्यान रखे ताकि छात्रों का ज्ञान प्रभावित न हो सके.
शिक्षा
का उद्देश्य हमेशा ज्ञान वर्धन होता हैं, भाषा का माध्यम चाहे कोई भी हो. किसी
माध्यम में यदि छात्रों का अधिक ज्ञान वर्धन हो रहा हो अथवा नौकरी के बाज़ार में
यदि उनकी क्रयशीलता में वृद्धि होती हैं
तो बड़ी सरलता से यह भाषा प्रचलित हो जाती हैं. आज की आवश्यकता हैं की हिन्दी को
प्रचलित भाषा बनाया जाए और इसके लिए इसकी बाज़ार में स्वीकार्यता को बढाना होगा.
केवल राजनैतिक भाषणबाज़ी या अंतरराष्ट्रीय हिन्दी सम्मलेन करेने से बहुत मदद नहीं
मिलेगी.
( यह आलेख हिन्दी दौनिक सुबह सवेरे में प्रकाशित हुआ हैं जिसका लिंक हैं http://epaper.subahsavere.news/c/7024115 )
हिन्दी के नाम पर जब तक translation और वो भी अप्रचलित शब्दों में होगा आप हिन्दी नहीं अंग्रेजी का ही भला करेंगे। प्राथमिक शिक्षा मातृ भाषा मे दीजिए । माध्यमिक तक अंग्रेजी सहित दो भाषा पढाइए। इसके बाद ऐसी समझ विकसित कीजिए कि ज्ञान चाहे वह उर्दू में मिले या संस्कृत में व्यक्ति उसे गृहणा कर सके।
ReplyDeleteदत्ता mam आपका लिखा लेख निःसंदेह बहुत गहरा अर्थ लिए है। बस एक निवेदन करना चाहूंगी। आज से पिछले 10 साल पहले और फिर 10 साल याने 20 वर्षो का इतिहास देखे तो आप जानेगी की आपकी बात सत्य है परंतु आपकी चिंता निर्मूल है। क्योकि बाज़ारीकरण और नवीन आर्थिक सुधारो के बाद अब सारा बाजार हिंदी प्रेरित ही हो रहा है। न केवल मीडिया के चैनल बल्कि विज्ञापन भी, धैर्य से देखने पर एक मज़ेदार नत पता चलेगी वो यह की बाज़ारवाद का रजा उपभोक्ता ही है और उसे हिंदी बहुत पसंद है। मतलब हिंदी का भविष्य उज्जवल ही है। इस बात पर आप मुस्कुरा सकते है।
ReplyDeleteऋतु तिवारी
परन्तु चिन्ता यह है कि बाजारवादी हिन्दी नहीं हिंगलिश ही है।
ReplyDeleteपरन्तु चिन्ता यह है कि बाजारवादी हिन्दी नहीं हिंगलिश ही है।
ReplyDeleteपरन्तु चिन्ता यह है कि बाजारवादी हिन्दी नहीं हिंगलिश ही है।
ReplyDeleteVery well written. Almost agree with mos of your argument, but would like to replace the concern for Hindi with most of our local languages.Hindi is not pan Indian, ask a Tamil or Manipuri!
ReplyDeleteI would like to quote a sher of Nida Fazli-
Khada hoon aaj bhi roti ke char hurf liye
Sawal yeh hai kitabo ne kya diya mujhko
(actually, it will not be very wrong if we substitute kitab with PhD here, to be honest!)
Are we just making functional skilled robots for the market? Are we training them for the task ahead, so that they learn the required skill and move on?
Knowledge imparted in any language is commendable.Mainstreaming of few languages has led to extinction of many local indigenous/ knowledge systems. Language is just not a mode of communication, 'used for transmission of knowledge,but for its preservation, accumulation and diffusion as well.'
(apologies for using English for my comment,restricted by the keyboard and my laziness!)