10 से 12 सितम्बर 2015 तक भोपाल एक दुल्हन
की तरह सजी रही और जगह जगह पर अंतरराष्ट्रिय हिन्दी सम्मलेन के बड़े बड़े पोस्टर लगे
हुए थे. मुख्य मंत्री जी भी घूम घूम कर लोगों को, खासकर व्यापारी बंधुओं को अपने
साईन बोर्ड हिन्दी में लगाने के लिए प्रोस्त्साहित कर रहे थे. यहाँ तक की पानी की
टंकियां भी हिन्दी मई हो गयी हैं.
ऐसे में हम भी कहाँ पीछे रहने वाले. ठहरे
हम भी पक्के भोपाली और भारतीय. हमने सोचा क्यूँ न व्हाट्स एप्प नाम की एक नयी बीमारी पर हिन्दी
सम्मलेन मनाया जाय. सो इसके एक समूह में हम सब ने तय किया की 3 दिन के लिए ही सही,
समूह के नाम से लेकर सभी संवाद हिन्दी में किये जायेंगे. ड्रेस रिहर्सल 9 तारिख से
ही प्रारंभ हो गया और हम 3 मित्र जो गाहे बगाहे थोड़ी अच्छी हिन्दी लिख बोल लेते
हैं को अवसर मिल गया अपनी शुद्ध, क्लिष्ठ हिन्दी ज्ञान को बघारने का. मैं मृणाल
पण्डे जी की लेखनी की बहुत बड़ी प्रशंसक हूँ और उन्ही की तरह कोशिश की कि एक भी शब्द आंग्ल भाषा का बीच में न आ जाये.
समूह में इस दौर में कामयानी का भी आदान प्रदान हुआ, मेरे सर्व प्रिय दुष्यंत कुमार
जी को भी बहुत पड़ा गया, कुछ मैथलीशरण गुप्त आये तो कुछ महादेवी वर्मा भी.
हम 3 – 4 मित्र अपनी हिन्दी में इतने
मुग्ध थे की पता ही नहीं चला की एक वरिष्ठ साथी, जो केरला से हैं और अब ऑस्ट्रेलिया
में बस गयी हैं ने समूह छोड़ दिया. मुझे जैसी ही ज्ञात हुआ मैंने तपाक से उन्हें
पुनः जोड़ लिया और उनसे कारण जानना चाहा तो उन्होंने बताया की उन्हें हिन्दी
वर्णमाला को पड़ने में कष्ट होता हैं. दो तीन पंक्ति के चुटकुलों तक तो वे अपने आप
को प्रेरित कर लेती हैं परन्तु 25 – 50 पंक्तियाँ पड़ना और क्लिष्ठ हिन्दी को समझ
पाना उनके लिए असंभव हैं. उन्होंने यह भी स्पष्ट किया की यहाँ कोई गर्व का विषय
नहीं हैं परन्तु हिन्दी कभी भी उनकी पहली भाषा नहीं रही. नतीजा यह हुआ की 11 की
शाम तक हमारे इस समूह ने अपनी संवाद की भाषा को पुनः अंग्रेजी एवं हिंगलिश कर ली.
पर हम भी कहाँ मानने वाले थे साहब, हम पर
तो हिन्दी का बुखार चड़ा था और हमने अपना हिन्दी में संवाद को निरंतर रखा. इस बीच
एक और वरिष्ठ साथी अपनी एक अन्य समस्या पर चर्चा कर रहे थे. उन्हें संबोधित करना
था, तो हमने अपने मित्रों से आंग्ल भाषा के सर का हिन्दी शब्द पूछ लिया तो जवाब
मिला खोपड़ी और स्त्रीलिंग पुछा तो उत्तर आया खोपडिया. साड़ी हिन्दी की खुमारी उतर
गयी. खूब हँसी ठिठोली हुई इस प्रसंग पर और एक बात और समझ आई. भाषा संवाद का माध्यम
हैं और एक बहते पानी के स्त्रोत की तरह वह प्रत्येक स्थान से कुछ नया लेता हैं जो
उसका अभिन्न अंग बन जाता हैं. क्या शुद्ध हैं और क्या विशुद्ध हैं पर चर्चा हो
सकती हैं परन्तु भाषा को बनाये रखने के लिए यह ज़रूरी हैं की इसके बदलते स्वरुप को
अपनाया जाए. यह भी सच हैं की बोल चाल की भाषा अलग होती हैं, लिखने की अलग एवं
साहित्य की अलग. अब इसमें एक और श्रेणी आ गे हैं सॉफ्टवेर की या हमारे समूह के
अनुसार कोमल पात्र की हिन्दी जिसे इस बार के अन्तर्राष्ट्रीय हिन्दी सम्मलेन में
बहुत देखा गया. इन सभी श्रेणीओं में
से किसे बढावा देना हैं और कैसे हिन्दी हमारी राष्ट्र भाषा बने ये चिंतन का विषय
हैं.
नोट: अभी इस आलेख में दो भाग और हैं. आगे
आप मित्रों से इस पर संवाद करुँगी
http://www.readwhere.com/read/c/6615824 (ये ब्लॉग सुबह सवेरे समाचार पत्र में प्रकशित हुई हैं)
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