Monday, December 14, 2015

जन धन योजना, सार्वजनिक वितरण प्रणाली और समायोजित विकास



भारत सरकार द्वारा खाद्द सुरक्षा अधिनियम लाया गया जिसके अंतर्गत भोजन को अधिकारों की श्रेणी में रखा गया और देश के 67 प्रतिशत जनसँख्या को इसके तहत लाने की बात राखी गयी. भोजन के साथ साथ महिला सशक्तिकरण की भी बात की गयी क्यूंकि अनाज घर की महिला मुखिया के नाम दिया जाएगा. युपीए सरकार ने डीबीटी योजना प्रारंभ की थी जिसमे हितग्राही को अनाज न  देते हुए सीधे नकद देने की बात कही गयी थी. वर्तमान प्रधान मंत्री जी ने इसी योजना को आगे बढ़ाते हुए जन धन योजना प्रारंभ की जिसके तहत देश के प्रत्येक नागरिक के खाता खोले जायेंगे और वर्ष 2018 तक इस कार्य को पूर्ण करना हैं. जन धन योजना न केवल वित्तीय समायोजन का एक यंत्र हैं अपितु सार्वजनिक वितरण प्रणाली तथा अन्य जनकल्याणकारी योजनाओं में हो रहे भ्रष्टाचार और चोरी को समाप्त करने का एक तरीका भी हैं.
      इस वर्ष के आरम्भ में शांता कुमार जी की अध्यक्षता में एक समिति बनायी गयी जिसने, भारतीय खाद्द निगम के सुधार और पुनर्निर्माण, के लिए अपने सुझाव दिए. इस समिति के अनुसार 47 प्रतिशत अनाज सार्वजनिक वितरण प्रणाली में से चोरी चला जाता हैं, अतः अनाज के स्थान पर नकद दिया जाना चाहिए और खाद्द सुरक्षा के अंतर्गत आने वाले लोगों की संख्या भी कम की जानी चाहिए. परन्तु छत्तीसगढ़, ओडिशा और हाल ही में बिहार के अध्य्यन बताते हैं की सार्वजनिक वितरण प्रणाली में सुधार लाये गए हैं और अनाज के आवंटन में चोरी में कमी आई हैं. तमिल नाडू और आंध्र प्रदेश पहले से ही व्यवस्था को सुचारू रूप से चला रहे हैं. इन राज्यों ने तकनीक की सहयता से राशन की दुकान और राशन कार्ड का कंप्यूटरीकरण किया हैं जिससे रिसाव कम हुआ हैं.
      वर्तमान सरकार “जैम” (जन धन योजना, आधार कार्ड और मोबाइल फोन) के उपयोग से सार्वजनिक वितरण प्रणाली को व्यवस्थित करने की बात कर रही हैं और साथ ही गरीबी उन्मूलन के लिए भी इसे उपयुक्त बता रही है. सरकारी रिपोर्ट इस ओर इंगित कर रहे हैं की इससे विश्व स्तर पर देश की साख बढेगी, डिजिटल इंडिया का सपना पूरा होगा और हितग्राहियों को पूर्ण लाभ मिल सकेगा. परन्तु यदि तीनो उपायों का मूल्यांकन किया जाए तो उत्साहजनक परिणाम देखने को नहीं मिलते हैं. आरबीआई, जन धन योजना के आरम्भ से ही इसे लेकर दुविधा में रहा हैं और रघुराम राजन ने कई बार इसके सफलता को लेकर अपने संशय को व्यक्त किया हैं. यदि हम बीते एक साल में इस योजना को देखे तो पायेंगे की लोगों के खाते तो खुले हैं परन्तु उनमे कोई लेन देन नहीं हुआ हैं. कई राज्यों ने लक्ष्य प्राप्ति की होड़ में ये भी सुनिश्चित नहीं किया की फ़र्ज़ी खाते खुल रहे अथवा पूर्व के खाताधारकों के ही दुबारे खाते खोल दिए गए है. लेखक ने भोपाल शहर के 5 झुग्गी बस्तिओं के सर्वेक्षण में यह पाया की आज भी निम्न आय स्तर के लोगों को अपने वित्तीय लेन देन हेतु बैंक पर भरोसा नहीं हैं. वे साहूकार अथवा माइक्रो फाइनेंस से लेन देन करना पसंद करते हैं.
      आधार कार्ड को लेकर माननीय सर्वोच्य न्यालय ने अपने एक निर्णय में बताया हैं की इसे हित्ग्राहिओं को लाभ पहुचने के लिए अनिवार्यता के रूप में नहीं रखा जा सकता हैं. मोबाइल फोन की यदि बात करे तो इसमें तकनिकी बाधा तो हैं ही, साथ ही साक्षरता की कमी के कारण भी इसे आधार बनाकर योजना को क्रियान्वित नहीं किया जा सकता हैं. वर्तमान समय में भारत में सर्वाधिक लोगों के पास मोबाइल फोन जरूर हैं परन्तु नेटवर्क की स्थिति बहुत ख़राब हैं. ऐसे में “जैम” पर निर्भर करना इस समय में व्यवाहरिक नहीं हैं.
      कई अध्य्यन इस बात की पुष्टि करते हैं की अनाज के आवंटन से गरीबी सर्वाधिक रूप से कम हो सकती हैं. यदि अनाज के स्थान पर नकद दिया जाता हैं तो इसमें कई समस्याये निहित हैं जैसे मुद्रास्फीति के लिए इसमें कोई प्रावधान नहीं हैं. साथ ही यह ज़रूरी नहीं हैं की जिस परिवार को अनाज के लिए रकम दी जायेगी वह उस पैसे का उपयोग इसी काम के लिए करेगा. तीसरा की इन सभी योजनओं का मूल उद्देश्य गरीबी कम करना हैं परन्तु यह इस पथ से भटक रहे हैं. सरकार दुबारा से हित्ग्राहिओं के पहचान के आधार पर योजना के लाभ पहुचने की बात रख रही हैं. पूर्व में कई योजनओं के असफल होने का मुख्य कारण यही हैं की हित्ग्राहिओं की पहचान नहीं हो पायी हैं. छत्तीसगढ़ में फर्जी राशन कार्ड बनने की शिकायत आई हैं और सरकार के पास इस वक़्त ऐसा कोई प्रावधान नहीं हैं जिसके अंतर्गत वह इसे रोक सके. साथ ही सरकार को केवल अनाज खरीदने पर ही ध्यान नहीं देना चाहिए अपितु इनके सही स्थान पर सही समय पर वितरण पर भी ध्यान देना चाहिए. यदि पंजाब में अनाज सड़ रहा है और चूहे उन्हें खा रहे, इस बात की खबर मुख्य पृष्ट पर प्रकशित होती हैं तो बोलांगीर और कालाहांडी में आम की गुठलीओं के खाने और इनसे मृत्यु की बात भी छपती हैं जो इस बात को और रेखांकित करती हैं की वितरण प्रणाली में दोष हैं और खाद्द सुरक्षा के जाल को फैलाये रखना अनिवार्य हैं. अमर्त्य सेन ने अपने कई लेख में इस बात की पुष्टि की हैं की गरीबी के उन्मूलन के लिए वितरण प्रणाली में सुधार आवश्यक हैं और नीतिगत बदलाव ज़रूरी हैं. वर्तमान परिदृश्य में तकनीक और वर्तमान व्यवस्था का मिश्रण अति महतवपूर्ण हैं. 

(सुबह सवेरे समाचारपत्र के 15 दिसम्बर 2015 के अंक में प्रकशित)

Monday, December 7, 2015

सतत विकास, पर्यावरण और मनुष्य का लोभ



महात्मा गाँधी जी ने कहाँ था की धरती के पास सबके आवश्यकता के लिए पर्याप्त हैं परन्तु उसके लोभ के लिए नहीं. चेन्नई ने इस कथन को चरितार्थ कर दिखाया हैं. विगत 15 दिनों से भारी वर्षा के चलते और मनुष्य के लोभ के कारण आम जन जीवन अस्त व्यस्त हो गया हैं और भयावर चित्र रोज़ टीवी के माध्यम से हम तक पहुँच रहे हैं. इन सब के बीच बचाव कार्यों में लोगों की प्रतिभागीता और सहस के कई कहानियां निकल के आ रही हैं. परन्तु बहुत कम लोग मूल कारण की चर्चा कर रहे हैं और राज्य सरकार भी मौसम की दुहाई देकर अपना पल्ला झाड़ रही हैं. कहा जा रहा हैं की विगत 100 सालों में इतनी बारिश इस समय में नहीं हुई और यही कारण हैं की बाड़ आई हैं. शायद प्रशासन यह भूल रहा हैं की उन्होंने कितने अवैध निर्माण कार्यो को सहमति दी हैं और अडियर नदी के अपवाह क्षेत्र को किस तरह से रौंध के विकास के नाम के तमगे बनाये गए जिसने नदी को अवस्र्द्ध कर दिया. जो जलाशय थे उन्हें समाप्त कर बहु मंजिली इमारते खड़ी कर दी गयी हैं. यही हाल मुंबई का हैं जहां मीठी नदी के जलग्रह क्षेत्र को समाप्त कर दिया गया. और यदि यह हाल हमारे महानगरों का हैं तो आप सोच सकते हैं की टियर 2 शहरों का क्या हाल हैं.
पर्यावरण को लेकर समय समय पर आवाज़ उठाई जाती हैं, परिचर्चा होती हैं, स्कूल में चित्र प्रतियोगिता के लिए यह सबसे लोकप्रिय विषय हैं, अंतर राष्ट्रिय स्तर की बैठकों में देश प्रमुख एक दो टेलीविज़न बाइट ज़रूर देते हैं और प्रति वर्ष प्राकृतिक आपदाओं की संख्या बडती जाती हैं और प्रदुषण से मरने वालों की संख्या में भी वृद्धि होती हैं. अलग अलग संस्थाएं हैं जो समय समय पर अपने प्रतिवेदन देते हैं और देश विदेश के पर्यावरण पर चिंता व्यक्त करते हैं. परन्तु ज़मीनी स्तर पर असंख्य जंगल नष्ट किये जा रहे हैं, उद्योगों का ज़हरीला पानी, पीने के स्त्रोत में मिलाये जा रहे हैं, जितनी लम्बी सड़के नहीं हैं उनसे कई गुना गाड़ियाँ आ गयी हैं जिससे कई शहरों में हवा सास लेने लायक नहीं बची हैं, प्लास्टिक इतनी हैं की पुरे धरती को कई बार ढाक सकती हैं और जो ज़मीन में मिलती हैं और दम घोटती हैं, ध्वनि प्रदुषण की कोई सीमा नहीं हैं और विकास के नाम पर अंधाधुन्द जलशयों को समाप्त कर निर्माण हो रहे हैं, बाँध बनाये जा रहे हैं.
एक तरफ स्मार्ट सिटी, अमृत शहर, डिजिटल इंडिया आदि की परिकल्पना हैं और दूसरी ओर उत्तराखंड, बिहार, असम, मुंबई, चेन्नई की बाड़, भोपाल, कोडाईकनाल की त्रासिदी हैं. पर्यवरण हमेशा अपने आप को संतुलित कर लेता हैं और जब करता हैं तो विध्वंशकारी हो जाता हैं. आज भी जो योजनाये बनायीं जा रही हैं उसमे पर्यावरण की अनदेखी कर मन मर्जी के प्रोजेक्ट को हरी झंडी दिखाई जा रही हैं. मध्य प्रदेश की ही बात कर ले तो पायेंगे की राज्य का 31 प्रतिशत भाग वन क्षेत्र हैं जो पुरे देश का 12 प्रतिशत हैं परन्तु खनन के मामले में भी राज्य देश में तीसरे स्थान पर हैं जो लगातार वन क्षेत्र को क्षति पंहुचा रहा हैं. यदि राजधानी भोपाल में ही देखे तो राष्ट्रिय ग्रीन ट्रिब्यूनल के दिशानिर्देश के बाद भी कलियासोत क्षेत्र में निर्माण कार्यों को अनुमति दे दी गयी हैं जिस कारण से बाघों के क्षेत्र में बाधा पहुँच रही हैं. विगत एक माह से कई बाघ शहर में आ गए. यह सभी बाते इस ओर संकेत कर रही हैं की योजनओं में भारी कमी हैं और कुछ ही वर्षों में स्थिति सुधारने योग्य नहीं रह जायेगी.
 
पेरिस में संयुक्त राष्ट्र द्वारा आयोजित सीओपी21 आयोजित की जा रही हैं जिसमे 195 देश 
सम्मिलित हैं और रिओ डे जिनेरियो के क्योटो प्रोटोकॉल से प्रारंभ हुआ यह सिलसिला बाली, 
कोपेनहेगन, डरबन, दोहा, लिमा होता हुआ पेरिस पंहुचा हैं और जहाँ विक्सित देश बड़ी बड़ी 
बातें तो कर रहे हैं परन्तु बांग्लादेश जैसे गरीब देश से अपेक्षा कर रहे हैं की वह कार्बन उत्सर्जन 
में योगदान दे. विकास के नाम पर अमेरिका और यूरोप ने पर्यावरण का जमकर दोहन किया हैं 
और इनके कार्बन पदचिन्ह विकासशील देशो से बहुत अधिक हैं. यह जो बौद्धिक, राजनैतिक और 
आर्थिक चर्चा चल रही हैं वह प्रतिवेदन में ही रह जायेगी और विक्सित देश उपभोग कम करने 
की या संरक्षण की बात नहीं करेंगे अपितु विकासशील और गरीब देशो से अपेक्षा रखेंगे की वे 
अपने विकास कार्यों में पर्यवरण का ध्यान रखे. कुछ वर्ष पूर्व कार्बन क्रेडिट की बात आई थी 
जो भी विकसित राष्ट्रों के हित में थी. ऐसे में इन सम्मेलनों से बहुत कुछ अपेक्षा नहीं रखी 
जा सकती हैं क्यूंकि विकासशील और गरीब देश इतने महत्त्वाकांक्षी लक्ष्यों को प्राप्त कर विकास 
नहीं कर पायेगा और विकसित राष्ट्र अपने लूट और लालच पर लगाम नहीं लगा पायेंगे. 
 
आज जिस गति से बदलाव आ रहे हैं ऐसे में यह सोचना या कहना की विकास की गति को 
धीमा कर पर्यावरण संरक्षण किया जाए तो यह न तो संभव हैं और न ही व्यवाहरिक. वैकल्पिक 
योजना की ज़रूरत हैं जो उर्जा भी दे और प्रदुषण न्यूनतम करे. भारत जैसे देश में सौर्य उर्जा का 
उपयोग बड़ी आसानी से हो सकता हैं और इसमें राज्य की भूमिका अहम होगी. जो नए सरकारी 
निर्माण हो रहे हैं अथवा बड़े उदयोग स्थापित किये जा रहे हैं, वहाँ अनिवार्य रूप से इसी का उपयोग 
किया जाना चाहिए. साथ ही घरेलु उपयोग में भी इसे प्रोत्साहित किया जाना चाहिए और इसके लिए
 सोलार पैनल को सस्ता करना आवश्यक हैं. जब सोलर कुकर आये थे तो सरकार ने इस पर सब्सिडी 
दी थी, आज भी ऐसे ही किसी योजना की आवश्यकता हैं. हमारे देश में पवन उर्जा का भी उपयोग हो 
सकता हैं. कृषि अपशिष्ट से ब्रिकेट्टेस बनाये जा सकते हैं जिनका उपयोग ईट के भट्टी में किया जा 
रहा हैं. निर्माण कार्यों और शहरों के मास्टर प्लान में जल निकासी के इंतज़ाम किए जाने चाहिए 
और सबसे महत्वपूर्ण: “नागरिकों को जागरूक होना होगा”.
( http://epaper.subahsavere.news/c/7533041)
 

Monday, November 30, 2015

स्मार्ट सिटी स्मार्ट नागरिक (भाग 2)




स्मार्ट सिटी को लेकर दूसरा आलेख लिखना ज़रूरी हो गया था क्यूंकि कई मित्रों और पाठकों से इस पर अलहदा अलहदा प्रतिक्रिया मिली हैं. स्मार्ट सिटी मिशन अपने आप में एक अकेला कार्यक्रम नहीं अपितु इसे अमृत, स्वच्छ भारत मिशन, डिजिटल इंडिया आदि के साथ जोड़कर देखना ज़रूरी हैं. अमृत, प्रोजेक्ट के आधार पर हैं और स्मार्ट सिटी मिशन क्षेत्र के आधार पर हैं परन्तु दोनों का ही धेय्य शहरी क्षेत्र का विकास करना हैं. पूर्व सरकार ने जेएनयुआरएम प्रारंभ किया था जिसके तेहत शहरो के सुविधाओं में सुधार किया गया था. आप इन सभी मिशन को किसी भी नाम से या यूँ कहे नेता के नाम से पुकार लीजिये, इनकी योजना एक जैसी हैं और कमियां भी एक जैसी हैं.
शहरीकरण को लेकर यदि अलग अलग सिद्धांतो को पढा जाये, चाहे भौगोलिक दृष्टिकोण से अथवा आर्थिक दृष्टिकोण से अथवा सामाजिक दृष्टिकोण से, ये पाया जाता हैं की सभी में कहा गया हैं की किसी भी क्षेत्र को एक टापू के रूप में विकसित नहीं किया जा सकता हैं. जब भी किसी शहर को आगे लेकर योजना बनायीं जाती हैं तो पहले आसपास के क्षेत्र (फ्रिंज एरिया) को विकसित करने का मॉडल तैयार किया जाना चाहिए; क्यूंकि ये सामान्य सी बात हैं की यदि भोपाल विकसित हो जाए परन्तु सीहोर, रायसेन, होशंगाबाद पिछड़ा रह जायें तो इन शेहरो के नागरिक भोपाल आयेंगे अपने नौकरी के सिलसिले में और बहुत से लोग यही बस जायेंगे. ऐसा होने से भोपाल कितना ही विकसित क्यूँ न हो जाए, इसकी व्यवस्था चरमरा जायेगी. अभी जो योजना बनायीं गयी हैं उसमे इस बात की ओर ध्यान नहीं दिया गया हैं. साथ ही स्मार्ट सिटी मिशन डॉक्यूमेंट में स्पष्ट रूप से यह लिखा हुआ हैं की रेट्रोफिटिंग (शहर में सुधार), रीडेवलपमेंट (शहर नवीनीकरण), ग्रीनफ़ील्ड डेवलपमेंट की रणनीति अपनाई जायेगी. सरल भाषा में कहे तो मौजूदा व्यवस्था में सुधार और कुछ नए निर्माण किये जायेंगे. इन सभी बातों में बार बार जनता से रायशुमारी की बात कही गयी हैं. कही भी पास के शहरों के विकास की बात नहीं की गयी हैं.
      इन सभी योजनायों के लिए वित्त कहाँ से लाया जाएगा यह मूल बात हैं. सरकार ने स्मार्ट सिटी मिशन के लिए 48 हज़ार करोड़ रुपये अगले 5 साल के लिए आबंटित किया हैं. अमृत के लिए 50 हज़ार करोड़ रुपये अगले 5 साल के लिए आबंटित किये गए हैं. राज्यों को अपनी ओर से भी समान राशी मिलानी होगी और 14वे वित्त आयोग के सुझाव हैं की प्रत्येक राज्य के नगर निगम अपने आय के स्त्रोत बढाए. साथ ही पीपीपी (पब्लिक प्राइवेट पार्टिसिपेशन) को भी अपनाया जा सकता हैं. अब इन सब आकड़ों का आम आदमी से क्या लेना देना? लेना देना यह हैं की हम पर कर बढ़ा दिए जायेंगे जिनके लिए ज़रूरी नहीं हैं की सेवाए भी दी जाए. दूसरा ये की पीपीपी मोड में जिन निजी खिलाड़िओं का चयन किया जाएगा, क्या वो प्रक्रिय निष्पक्ष होगी? क्या हमे कर के साथ इन सेवाओं को प्राप्त करने के लिए दुबारा सेवा शुल्क देना होगा? 100 करोड़ रूपए प्रति शहर केंद्र द्वारा दिया जाएगा और इतनी ही राशी राज्य सरकार द्वार भी मिलायी जाएगी, क्या 200 करोड़ से कुछ सार्थक हो पायेगा?
      यदि मध्य प्रदेश के दो शहरों की ही बात की जाए- भोपाल और इंदौर तो हम पायेंगे की यहाँ के नगर निगम अपने काम सही रूप से नहीं कर पा रहे हैं. भोपाल में एक ओवर ब्रिज विगत 4 साल से बन रहा हैं परन्तु अभी तक काम पूरा नहीं हो पाया हैं और यदि समाचार पत्रों की माने तो इसकी गुणवत्ता इतनी ख़राब हैं की अभी से इसके दिवार में दरार नज़र आ रहे हैं. ये उधारण देना इसलिए आवश्यक हैं की जो सेवाएँ हमे पहले से ही मिलने चाहिए वो अभी नहीं मिल रहे हैं और जब स्मार्ट सिटी, अमृत, डिजिटल इंडिया, स्वच्छता मिशन के नाम से करोड़ो रुपये आयेंगे तो क्या बन्दर बाट नहीं होगा जैसा अभी तक होता आया हैं? नगर निगम के पार्षद एवं महापौर जिन वादों के साथ चुन के आते हैं उनमे से 50 प्रतिशत भी पुरे नहीं किये जाते हैं. अधिकांश सड़कों पर बिजली और प्रकाश नहीं हैं. भोपाल के कई नयी चौड़ी सड़के तो रात के समय जुए और शराब के अड्डे हैं और यही हाल इंदौर का भी हैं. एक भारी बारिश में तथाकथित नाले उफान पर आ जाते हैं और एम पी नगर, न्यू मार्केट जैसे स्थानों पर ही पानी भर जाता हैं और लोग अपने गाड़िओं में धक्के मारते नज़र आते हैं.
      प्रधान मंत्री श्री नरेंद्र मोदी जी के मन की आवाज़ सुनकर तो लगता हैं की वे सम्पूर्ण देश का विकास करना चाहते हैं और गाँव को भी पूर्ण रूप से अपने कार्यक्रमों और योजनाओं से लाभान्वित करना चाहते हैं. परन्तु इस मिशन से गाँव को कोई लाभ नहीं होगा, शायद ग्रामीण अंचल और शहरो के बीच की दूरी और बढ़ जाएगी. पूर्व में भी हमने असंतुलित विकास के मॉडल को अपनाया था परन्तु तब की परिस्थिति और अब की परिस्थिति में ज़मीन आसमां का अंतर हैं. उस समय हमारे पास इतना धन नहीं था की हम सभी क्षेत्रों का एक साथ विकास योजना को क्रियान्वित कर सके परन्तु आज तो हम विश्व में अपना लोहा मनवा चुके हैं और ऐसे में असंतुलित विकास योजना बुद्धिमत्ता नहीं दर्शाता हैं. प्रदेश के मुख्य मंत्री जी ने भी अपने मुख्य मंत्री के रूप में 10 वर्ष पुरे किये हैं और अपने साक्षात्कार में उन्होंने कहाँ की शिक्षा और स्वास्थ्य के क्षेत्र में हम पिछड़े हुए हैं. ऐसे में स्मार्ट सिटी तथा उसे जुड़े कर्येक्रमो को लाना कितना ओचित्यपूर्ण हैं?
      आज जनता को अपने राजनैतिक पसंद नापसंद से ऊपर उठकर केवल अपने और अपने शहर के विकास के लिए सोचना होगा. पुरानी शराब को नए बोतल में परोसकर जनता को छलावे में नहीं रखा जा सकता हैं. जो सेवाए उसका अधिकार हैं उसके लिए सरकार नया नाम देकर और समय नहीं ले सकती. आज राजधानी में लोगों को सरकारी अस्पतालों में 3 से 4 घंटे डॉक्टर के लिए इंतज़ार करना पड़ता हैं, अपने राशन कार्ड, आधार कार्ड, वोटर पहचान पत्र आदि के लिए नगर निगम कार्यालय के चक्कर काटने पड़ते हैं और रिश्वत भी देनी पड़ती हैं. अपनी नाली साफ़ करवाने के लिए पार्षद के हाथ जोड़ने पड़ते हैं, सड़क, पानी तो भूल जाईये.
      हमारे मुख्य मंत्री जी से निवेदन हैं की नीति आयोग की अगली बैठक में वो जब जाए तो ये बात रखे की केवल नामकरण से कुछ नहीं होगा. स्मार्ट सिटी के लिए जो जनता अपने सुझाव दे रही हैं उसे केवल वेबसाइट तक ही न रहे परन्तु योजना में संशोधन कर, जनता की आवाज़ को भी सुने.

Monday, November 23, 2015

स्मार्ट सिटी - स्मार्ट नागरिक




स्मार्ट सिटी मिशन, प्रधान मंत्री मोदी जी के चुनावी वादों में से एक रहा हैं जिसको लेकर वो काफ़ी गंभीर प्रतीत हो रहे हैं. वर्तमान कुछ समय से उनके सभी राष्ट्रीय अंतर्राष्ट्रीय उद्बोधनों में स्मार्ट सिटी के परिकल्पना की बात रहती हैं. स्मार्ट सिटी की कोई सर्व व्यापी परिभाषा नहीं हैं और ये राज्य तथा नागरिकों की परिकल्पना पर निर्भर करता हैं की वे किसे स्मार्ट सिटी मानते हैं अथवा वे अपने शहर को विश्व के किस शहर के जैसा देखना चाहते हैं. यदि केंद्र सरकार के मिशन को पढा जाए तो यह समझ में आती हैं की सरकार सम्पूर्ण आधुनिक आधारभूत सेवाओं से लेज़ शहर चाहते हैं, जो आने वाले कई दशक तक जनसँख्या के बढते आकार के अनुरूप अपने नागरिकों को सर्वोत्तम सेवाए दे सके. यदि आप नागरिकों की दृष्टिकोण को भी उसमे देखे तो पायेंगे की वो बहुत अधिक अलग नहीं हैं सरकार के योजना से, अंतर इतना हैं की सरकार विश्व स्तरीय बात कर रहा हैं और नागरिक आधारभूत सेवाओं की जो स्मार्ट सिटी की कल्पना में निहित हैं.
भारत में कोई भी मिशन अथवा जन कल्याणकारी कार्यक्रम प्रारंभ किया जाए और उसमे राजनीति न हो, यह संभव नहीं हैं. जो भी दल सत्ता में होती हैं वह केवल गुणों की बात करती हैं और सभी विपक्षी दल केवल अवगुणों की बात करती हैं, परन्तु वास्तव में यह सब इतना श्वेत- श्याम नहीं होता हैं. इस मिशन के साथ भी यही दुर्भाग्य हैं की राजनैतिक दल अपने हितो की रक्षा में आम नागरिक की सुविधा और विकास को कही भूल न जाए. यह जो विरोधाभास सरकार की योजना और आम जनता के मन की बात में हैं वो शायद इसलिए हैं क्यूंकि आम आदमी अपने जीवन में आज भी सड़क, बिजली, पानी की समस्यायों से जूझ रहा हैं. चुनावी वादे केवल चुनावों तक ही सिमित रह जाते हैं और ज़मीन सच्चाई कुछ और ही होती हैं. और इसके लिए नागरिकों को यह समझना बहुत आवश्यक हैं की राजनैतिक दल कोई भी हो, योजनाओं को संचालित करने का तथा क्रियान्वित करने का काम प्रशासन एवं उसके अधिकारी- कर्मचारी ही करते हैं. राजनैतिक इच्छा शक्ति का होना बहुत ज़रूरी हैं परन्तु प्रणाली यदि भ्रष्ट हैं कोई भी कार्यक्रम कितना ही अच्छा क्यूँ न, हो बहुत सफल नहीं हो पायेगा और इसके लिए मनरेगा एक बहुत बड़ा उदहारण हैं.
स्मार्ट सिटी में बेहतर यातायात, सतत बिजली और पानी की पूर्ती, बेहतर अपशिष्ट प्रबंधन, मल निकासी की बेहतर प्रणाली, नागरिकों के स्वास्थ्य के लिए प्रदुषण को कम करने के उपाय, मनोरंजन के बेहतर साधन, पार्किंग की सुविधा आदि की बात कही गयी हैं. और इस हेतु विभिन्न राज्यों ने योजना बनाना प्रारंभ कर दिया हैं. पूरे देश से कुल 100 शहरों को स्मार्ट सिटी में परिवर्तित किया जाएगा जिसमे से 20 शहरों पर पहले चरण में काम होगा और दुसरे  चरण में शेष 80 शहरों को विक्सित किया जाएगा. उत्तर प्रदेश से सर्वाधिक 13 शहरों को इस सूचि में रखा गया हैं. मध्य प्रदेश के 7 शहरों को स्मार्ट सिटी बनाया जाएगा जिनमे हैं राजधानी भोपाल, उदयोग नगरी इंदौर, शाही नगरी ग्वालियर, सिंघस्त की नगरी उज्जैन जिसको लेकर शंका थी, जबलपुर, सतना, और सागर. मुख्य मंत्री जी उज्जैन के स्थान पर बुरहानपुर चाहते थे क्यूंकि उनका मानना था की सिंघस्त के चलते उज्जैन नगर काफ़ी विक्सित हो जाएगा परन्तु अंत में उज्जैन को ही शामिल किया गया. भोपाल के लिए योजना बड़ी तेजी से बनायीं जा रही हैं और उम्मीद हैं की वर्ष 2016 तक प्रारंभिक कार्य प्रारंभ हो जाएगा.
अब इस सब में कुछ प्रश्न बड़े तेजी से लोगों के मन में आ रहे हैं जिनका समाधान जरुरी हैं क्यूंकि शहर इन्ही का हैं. केंद्र सरकार ने इस मिशन के लिए कुल 48000 करोड़ रुपये 5 वर्ष के लिए रखे हैं जो की 100 करोड़ प्रति शहर प्रति वर्ष के लिए हैं. इतनी ही धनराशी राज्य सरकार को भी मिलनी होगी. अब प्रश्न यह हैं की मध्य प्रदेश जैसी सरकार इतना बड़ी राशि कहाँ से लाएगी क्यूंकि इस वक़्त प्रदेश के ऊपर कर्ज बहुत अधिक हैं. दूसरा अभी तक जो राज्य सरकार और नगर निगम ने बैठके की हैं परियोजना को लेकर वे बहुत अधिक सफल नहीं रही हैं क्यूंकि सभी हितग्राहिओं को शामिल नहीं किया गया. समाचार पत्रों की माने तो एक कंपनी ने तो 5 करोड़ की केवल बैठक के नाम पर ही सरकार को चपत लगा दी. इसीलिए बहुत ज़रूरी हैं की सरकार राजनीति से ऊपर उठकर सभी लोगों को मंच दे क्यूंकि केंद्र सरकार की योजना में नागरिकों की भागीदारी को महत्व दिया गया हैं.
तीसरा महत्वपूर्ण प्रश्न हैं की वर्तमान सेवाओं को ठीक करने के लिए सरकार क्या कदम उठा रही हैं? आज भी बहुत से अवैध निर्माण हो रहे हैं जिनकी ओर निगम उदासीन हैं. पार्किंग के लिए दी गयी ज़मीन पर निर्माण कर दिए गए हैं जिस कारण आये गए दिन जाम लग जाते हैं, जिसके लिए भोपाल के एम पी नगर को उद्धरण के रूप में देखा जा सकता हैं. नर्मदा जल के लाइन बिछ गयी हैं परन्तु पानी का दूर दूर तक कोई आस दिखाई नहीं दे रही हैं. बिजली चोरी जोर शोर से की जा रही हैं और केवा झुग्गिवासिओं द्वारा ही नहीं परन्तु कई पोश कॉलोनी में भी यही आलम हैं. जगह जगह पानी के पाइप फूटे हुए हैं और सड़के धुल रही हैं. मल निकासी की समस्या बहुत बड़ी हैं भोपाल में क्यूंकि जब भी किसी कॉलोनी अथवा अन्य निर्माण कार्य की योजना की जाती हैं तो इसे लेकर केवल खाना पूर्ति की जा रही हैं. नालों की स्थिति भी बहुत ख़राब हैं, थोड़े से बारिश में शहर लबालब हो जाता हैं. यातायात सेवाओं के मामले में तो भोपाल बहुत ही पीछे हैं और येही कारण हैं की व्यक्तिगत वाहनों की संख्या बड गयी हैं जिससे न केवल पार्किंग, जाम की समस्या उत्पन्न हो रही हैं परन्तु प्रदुषण का स्तर भी बहुत बड़ गया हैं. केंद्र सरकार की योजना में साइकिल ट्रैक्स को लेकर भी बात की गयी हैं जो भोपाल के लिए बहुत ज़रूरी हैं. शहर में जो ब्रिज हैं उनका रखा रखाव नहीं किया जा रहा हैं और प्रति दिन सैकड़ों लोग अपनी जान जोखिम में डाल रहे हैं. अपशिष्ट प्रबंधन तो हैं ही नहीं और भानपुरा पर यदि आप चले जाये तो 2 मिनट भी खड़े रहना दूभर हैं. सरकार सभी कार्यो को ई सेवा में परिवर्तित कर रही हैं जिसके लिए इन्टरनेट सुविधा मूलभूत हैं परन्तु आलम यह हैं की आधे से ज्यादा शहर में ब्रॉडबैंड सुविधा नहीं हैं. सड़कों को लेकर जितनी कम बात की जाए उतना अच्छा हैं क्यूंकि आज सड़क बनती हैं और परसों खुद जाती हैं और 2 दिन बाद उसपर मलबा चढ़  दिया जात हैं ताकि आप अपनी गाडी में बैठ उठ की सवारी का मजा ले सके.
चौथा प्रश्न हैं की नागरिकों की भूमिका क्या हैं, इस पूरे मिशन में- सरकार और तंत्र को गाली देना अथवा अपने दायित्वों का पालन करना और जहाँ ज़रूरत पड़े वहा आधिकारों का उपयोग कर अपने शहर की खूबसूरती और रूह को बनाये रखना? लेखक और उसके साथिओं द्वारा आज से कुछ वर्ष पूर्व एक व्यवस्था प्रारंभ की गयी थी की हर घर से कचरा एकत्रित करना और उसे बायोडिग्रेडेबल और नॉन बायोडिग्रेडेबल में बाटना ताकि अपशिष्ट प्रबंधन किया जा सके. इसके लिए एक आदमी को लगाया गया था और रेह्वासिओं से यह निवेदन किया गया था की वे अपने घर का कचरा हमारे व्यक्ति को ही दे. इसके लिए किसी भी प्रकार का कोई शुल्क नहीं लिया जा रहा था और हमने इसमें विज्ञानं के छात्रों की मदद ली थी. कुछ महीने तो ये काम अच्छा चला परन्तु फिर एक आई ए एस साहब के कारण सारा कार्येक्रम स्वः हो गया. उन्होंने इसको लेकर बहुत हल्ला किया और हमारी साथी जो ये एकत्रित करने ठेला लेकर जाती थी उसे भी बहुत अपशब्द कहे. और ये बात अरेरा कॉलोनी की हैं और जो लोग भोपाल को जानते हैं वे समझ सकेंगे के यहाँ किस प्रकार के लोग रहते हैं. ये तब किया गया जब नगर निगम ने घर से कचरा उठाने का काम प्रारंभ नहीं किया था. आज जब घरों से कचरा लिया जा रहा हैं तो भी स्थिति बहुत बेहतर नहीं हो पायी हैं क्यूंकि मानसिकता वाही पुरानी हैं. यही हाल स्वच्छ भारत मिशन का भी हुआ जिसमे लोगों ने सेल्फी तो ले ली परन्तु गन्दगी फ़ैलाने का कम वैसे ही हैं. येही कुछ हाल पार्किंग को लेकर भी हैं. हमारा बस चले तो हम अपनी गाडिओं को दुकानों के अन्दर ही ले जाकर खड़ी कर ले और यदि बड़ी गाडी हैं तो बात ही क्या. सड़क के लिए कर दिया हैं तो इसलिए वो हमारी बपोती हैं. और ऐसे कई चीजे हैं जो हम कर रहे हैं अपने सुन्दर भोपाल को गन्दा करने के लिए.
स्मार्ट सिटी मिशन बहुत अच्छा हैं, इसकी उत्पत्ती पर न जाकर और युपीए बनाम एनडीए की बहस 
में न पड़कर, हम यदि इसे केवल शहरीकरण की दृष्टिकोण से देखे तो बेहतर होगा. साथ ही सरकार 
की भूमिका इसमें अहम होगी यह स्पष्ट हैं और इसीलिए ज़रूरी हैं की काम देते समय सरकार भाई 
भतीजा वाद न करके केवल शहर और नागरिकों की बात सोचे. हर शहर की अपनी एक आत्मा होती 
हैं जो उसे नायाब बनती हैं, ऐसे ही हमारे भोपाल के गंगा जमुनी सभ्यता, इसकी हरी भरी पेड़ो से 
ढका वातावरण, हमारे तालाब इसकी पहचान हैं जिसके इर्द गिर्द ही योजना बनायीं जानी चाहिए. 
आने वाले समय की जनसँख्या वृद्धि को भी ध्यान में रखा जाए और सैटेलाइट टाउनशिप को इसी 
प्रकार विक्सित करे. नागरिकों को अपने हितो की रक्षा करनी होगी क्यूंकि आने वाली पीड़ी के लिए 
ये ही जिम्मेदार हैं.
 
http://epaper.subahsavere.news/c/7327017