Friday, July 19, 2013

प्रजातन्त्र में नक्सलियो / माओवादियो का स्थान

हिंसा किसी के द्वारा किसी भी रूप में की जाय तो वह निन्दनीय है। किसी भी मसले का हल कभी भी हिंसा नही हो सकती है। देष में पिछले कुछ दषको से लाल आंतक बढ़ गया है और आंतरिक सुरक्षा को सर्वाधिक खतरा इन्ही लोगो से है। माओवादियो से सहानुभूति रखने वालो का मानना है कि सामाजिक असुंतलन के कारण यह समस्या उत्पन्न हुई है। और सरकार पूरी तरह से जिम्मेदार है। परन्तु यदि हम इतिहास को थोडा सा खंगाले तो पायेगे कि चारू मजुमदार जिस उद्देष्य से नकषलबडि से निकले थे और वर्तमान नक्सलियो के उद्देष्यो में जमीन आसमान का अंतर है। समाज में आर्थिक विषमता है, और बढ़ती जा रही है। कई स्थानो पर सरकार विफल रही है परन्तु इसका यह अर्थ कतइ नही है कि आम लोगो के विकास की सम्पूर्ण प्रक्रिया से बाहर रखा जाय।
माओवादी लोकतंत्र में विष्वास ही नही रखते और इसमें भाग लेना भी नही चाहते है। यह उनका निर्णय है पर क्या वो आम जनता को इस प्रक्रिया से बाहर रखकर विकास कर पायेगे? आज छत्तीसगढ़, आन्ध्रप्रदेष, बंगाल, उडीसा, झारखण्ड, मध्यप्रदेष, महाराष्ट्र नक्सलवाद से प्रभावित है। जिन भी क्षेत्रो में ये बल पूर्वक विकास कार्यो में बाधक बन रहे है वहां पर पिछडापन बढ़ रहा है।
इस पूरे घटनाक्रम में रोचक बात यह है कि नक्सली अमीर होते जा रहे है। पहले से ज्यादा आधुनिक हथियार है, वैहषीपन बढ़ गया है, नये रंगरूटो की औसत आयु कम होती जा रही है। यह सब बाते इस ओर इषारा करती है कि अब यह केवल पूंजीवाद, सामान्तवाद के खिलाफ लड़ाई नही है बल्कि एक फलता-फूलता कारोबार है जो कुछ रखसुबेदारो के पास गिरवी है।
हाल ही छत्तीसगढ में हुये नरसंहार को यदि हम देखे तो एक श्रृखंला नजर आती है जो इस बात को मजबूती देती है कि यह किराये के हत्यारे है जो नकस्लवाद का मुखौटा पहन पीछे से चलाये जा रहे है। पिछले कुछ सालो से हो रहे हमलो की यदि हम विष्लेषण करे तो एक पैर्टन नजर आता है।
इसका अर्थ यह बिल्कुल भी नही है कि समाज में अन्तर नही है। आर्थिक विषमता बढी है परन्तु हत्यारा इसका उत्तर नही है। हमे प्रजातंत्र में रहते हुये इसका हल निकालना होगा। अंतिम पंक्ति के अंतिम व्यक्ति तक विकास की प्रक्रिया को पहुंचाना आवष्यक है। कही ऐसा न हो के लाल आंतक से प्रभावित क्षेत्र उत्तर पूर्वी राज्यो जैसे अलग-थलग रह जाये।

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