Monday, December 14, 2015

जन धन योजना, सार्वजनिक वितरण प्रणाली और समायोजित विकास



भारत सरकार द्वारा खाद्द सुरक्षा अधिनियम लाया गया जिसके अंतर्गत भोजन को अधिकारों की श्रेणी में रखा गया और देश के 67 प्रतिशत जनसँख्या को इसके तहत लाने की बात राखी गयी. भोजन के साथ साथ महिला सशक्तिकरण की भी बात की गयी क्यूंकि अनाज घर की महिला मुखिया के नाम दिया जाएगा. युपीए सरकार ने डीबीटी योजना प्रारंभ की थी जिसमे हितग्राही को अनाज न  देते हुए सीधे नकद देने की बात कही गयी थी. वर्तमान प्रधान मंत्री जी ने इसी योजना को आगे बढ़ाते हुए जन धन योजना प्रारंभ की जिसके तहत देश के प्रत्येक नागरिक के खाता खोले जायेंगे और वर्ष 2018 तक इस कार्य को पूर्ण करना हैं. जन धन योजना न केवल वित्तीय समायोजन का एक यंत्र हैं अपितु सार्वजनिक वितरण प्रणाली तथा अन्य जनकल्याणकारी योजनाओं में हो रहे भ्रष्टाचार और चोरी को समाप्त करने का एक तरीका भी हैं.
      इस वर्ष के आरम्भ में शांता कुमार जी की अध्यक्षता में एक समिति बनायी गयी जिसने, भारतीय खाद्द निगम के सुधार और पुनर्निर्माण, के लिए अपने सुझाव दिए. इस समिति के अनुसार 47 प्रतिशत अनाज सार्वजनिक वितरण प्रणाली में से चोरी चला जाता हैं, अतः अनाज के स्थान पर नकद दिया जाना चाहिए और खाद्द सुरक्षा के अंतर्गत आने वाले लोगों की संख्या भी कम की जानी चाहिए. परन्तु छत्तीसगढ़, ओडिशा और हाल ही में बिहार के अध्य्यन बताते हैं की सार्वजनिक वितरण प्रणाली में सुधार लाये गए हैं और अनाज के आवंटन में चोरी में कमी आई हैं. तमिल नाडू और आंध्र प्रदेश पहले से ही व्यवस्था को सुचारू रूप से चला रहे हैं. इन राज्यों ने तकनीक की सहयता से राशन की दुकान और राशन कार्ड का कंप्यूटरीकरण किया हैं जिससे रिसाव कम हुआ हैं.
      वर्तमान सरकार “जैम” (जन धन योजना, आधार कार्ड और मोबाइल फोन) के उपयोग से सार्वजनिक वितरण प्रणाली को व्यवस्थित करने की बात कर रही हैं और साथ ही गरीबी उन्मूलन के लिए भी इसे उपयुक्त बता रही है. सरकारी रिपोर्ट इस ओर इंगित कर रहे हैं की इससे विश्व स्तर पर देश की साख बढेगी, डिजिटल इंडिया का सपना पूरा होगा और हितग्राहियों को पूर्ण लाभ मिल सकेगा. परन्तु यदि तीनो उपायों का मूल्यांकन किया जाए तो उत्साहजनक परिणाम देखने को नहीं मिलते हैं. आरबीआई, जन धन योजना के आरम्भ से ही इसे लेकर दुविधा में रहा हैं और रघुराम राजन ने कई बार इसके सफलता को लेकर अपने संशय को व्यक्त किया हैं. यदि हम बीते एक साल में इस योजना को देखे तो पायेंगे की लोगों के खाते तो खुले हैं परन्तु उनमे कोई लेन देन नहीं हुआ हैं. कई राज्यों ने लक्ष्य प्राप्ति की होड़ में ये भी सुनिश्चित नहीं किया की फ़र्ज़ी खाते खुल रहे अथवा पूर्व के खाताधारकों के ही दुबारे खाते खोल दिए गए है. लेखक ने भोपाल शहर के 5 झुग्गी बस्तिओं के सर्वेक्षण में यह पाया की आज भी निम्न आय स्तर के लोगों को अपने वित्तीय लेन देन हेतु बैंक पर भरोसा नहीं हैं. वे साहूकार अथवा माइक्रो फाइनेंस से लेन देन करना पसंद करते हैं.
      आधार कार्ड को लेकर माननीय सर्वोच्य न्यालय ने अपने एक निर्णय में बताया हैं की इसे हित्ग्राहिओं को लाभ पहुचने के लिए अनिवार्यता के रूप में नहीं रखा जा सकता हैं. मोबाइल फोन की यदि बात करे तो इसमें तकनिकी बाधा तो हैं ही, साथ ही साक्षरता की कमी के कारण भी इसे आधार बनाकर योजना को क्रियान्वित नहीं किया जा सकता हैं. वर्तमान समय में भारत में सर्वाधिक लोगों के पास मोबाइल फोन जरूर हैं परन्तु नेटवर्क की स्थिति बहुत ख़राब हैं. ऐसे में “जैम” पर निर्भर करना इस समय में व्यवाहरिक नहीं हैं.
      कई अध्य्यन इस बात की पुष्टि करते हैं की अनाज के आवंटन से गरीबी सर्वाधिक रूप से कम हो सकती हैं. यदि अनाज के स्थान पर नकद दिया जाता हैं तो इसमें कई समस्याये निहित हैं जैसे मुद्रास्फीति के लिए इसमें कोई प्रावधान नहीं हैं. साथ ही यह ज़रूरी नहीं हैं की जिस परिवार को अनाज के लिए रकम दी जायेगी वह उस पैसे का उपयोग इसी काम के लिए करेगा. तीसरा की इन सभी योजनओं का मूल उद्देश्य गरीबी कम करना हैं परन्तु यह इस पथ से भटक रहे हैं. सरकार दुबारा से हित्ग्राहिओं के पहचान के आधार पर योजना के लाभ पहुचने की बात रख रही हैं. पूर्व में कई योजनओं के असफल होने का मुख्य कारण यही हैं की हित्ग्राहिओं की पहचान नहीं हो पायी हैं. छत्तीसगढ़ में फर्जी राशन कार्ड बनने की शिकायत आई हैं और सरकार के पास इस वक़्त ऐसा कोई प्रावधान नहीं हैं जिसके अंतर्गत वह इसे रोक सके. साथ ही सरकार को केवल अनाज खरीदने पर ही ध्यान नहीं देना चाहिए अपितु इनके सही स्थान पर सही समय पर वितरण पर भी ध्यान देना चाहिए. यदि पंजाब में अनाज सड़ रहा है और चूहे उन्हें खा रहे, इस बात की खबर मुख्य पृष्ट पर प्रकशित होती हैं तो बोलांगीर और कालाहांडी में आम की गुठलीओं के खाने और इनसे मृत्यु की बात भी छपती हैं जो इस बात को और रेखांकित करती हैं की वितरण प्रणाली में दोष हैं और खाद्द सुरक्षा के जाल को फैलाये रखना अनिवार्य हैं. अमर्त्य सेन ने अपने कई लेख में इस बात की पुष्टि की हैं की गरीबी के उन्मूलन के लिए वितरण प्रणाली में सुधार आवश्यक हैं और नीतिगत बदलाव ज़रूरी हैं. वर्तमान परिदृश्य में तकनीक और वर्तमान व्यवस्था का मिश्रण अति महतवपूर्ण हैं. 

(सुबह सवेरे समाचारपत्र के 15 दिसम्बर 2015 के अंक में प्रकशित)

Monday, December 7, 2015

सतत विकास, पर्यावरण और मनुष्य का लोभ



महात्मा गाँधी जी ने कहाँ था की धरती के पास सबके आवश्यकता के लिए पर्याप्त हैं परन्तु उसके लोभ के लिए नहीं. चेन्नई ने इस कथन को चरितार्थ कर दिखाया हैं. विगत 15 दिनों से भारी वर्षा के चलते और मनुष्य के लोभ के कारण आम जन जीवन अस्त व्यस्त हो गया हैं और भयावर चित्र रोज़ टीवी के माध्यम से हम तक पहुँच रहे हैं. इन सब के बीच बचाव कार्यों में लोगों की प्रतिभागीता और सहस के कई कहानियां निकल के आ रही हैं. परन्तु बहुत कम लोग मूल कारण की चर्चा कर रहे हैं और राज्य सरकार भी मौसम की दुहाई देकर अपना पल्ला झाड़ रही हैं. कहा जा रहा हैं की विगत 100 सालों में इतनी बारिश इस समय में नहीं हुई और यही कारण हैं की बाड़ आई हैं. शायद प्रशासन यह भूल रहा हैं की उन्होंने कितने अवैध निर्माण कार्यो को सहमति दी हैं और अडियर नदी के अपवाह क्षेत्र को किस तरह से रौंध के विकास के नाम के तमगे बनाये गए जिसने नदी को अवस्र्द्ध कर दिया. जो जलाशय थे उन्हें समाप्त कर बहु मंजिली इमारते खड़ी कर दी गयी हैं. यही हाल मुंबई का हैं जहां मीठी नदी के जलग्रह क्षेत्र को समाप्त कर दिया गया. और यदि यह हाल हमारे महानगरों का हैं तो आप सोच सकते हैं की टियर 2 शहरों का क्या हाल हैं.
पर्यावरण को लेकर समय समय पर आवाज़ उठाई जाती हैं, परिचर्चा होती हैं, स्कूल में चित्र प्रतियोगिता के लिए यह सबसे लोकप्रिय विषय हैं, अंतर राष्ट्रिय स्तर की बैठकों में देश प्रमुख एक दो टेलीविज़न बाइट ज़रूर देते हैं और प्रति वर्ष प्राकृतिक आपदाओं की संख्या बडती जाती हैं और प्रदुषण से मरने वालों की संख्या में भी वृद्धि होती हैं. अलग अलग संस्थाएं हैं जो समय समय पर अपने प्रतिवेदन देते हैं और देश विदेश के पर्यावरण पर चिंता व्यक्त करते हैं. परन्तु ज़मीनी स्तर पर असंख्य जंगल नष्ट किये जा रहे हैं, उद्योगों का ज़हरीला पानी, पीने के स्त्रोत में मिलाये जा रहे हैं, जितनी लम्बी सड़के नहीं हैं उनसे कई गुना गाड़ियाँ आ गयी हैं जिससे कई शहरों में हवा सास लेने लायक नहीं बची हैं, प्लास्टिक इतनी हैं की पुरे धरती को कई बार ढाक सकती हैं और जो ज़मीन में मिलती हैं और दम घोटती हैं, ध्वनि प्रदुषण की कोई सीमा नहीं हैं और विकास के नाम पर अंधाधुन्द जलशयों को समाप्त कर निर्माण हो रहे हैं, बाँध बनाये जा रहे हैं.
एक तरफ स्मार्ट सिटी, अमृत शहर, डिजिटल इंडिया आदि की परिकल्पना हैं और दूसरी ओर उत्तराखंड, बिहार, असम, मुंबई, चेन्नई की बाड़, भोपाल, कोडाईकनाल की त्रासिदी हैं. पर्यवरण हमेशा अपने आप को संतुलित कर लेता हैं और जब करता हैं तो विध्वंशकारी हो जाता हैं. आज भी जो योजनाये बनायीं जा रही हैं उसमे पर्यावरण की अनदेखी कर मन मर्जी के प्रोजेक्ट को हरी झंडी दिखाई जा रही हैं. मध्य प्रदेश की ही बात कर ले तो पायेंगे की राज्य का 31 प्रतिशत भाग वन क्षेत्र हैं जो पुरे देश का 12 प्रतिशत हैं परन्तु खनन के मामले में भी राज्य देश में तीसरे स्थान पर हैं जो लगातार वन क्षेत्र को क्षति पंहुचा रहा हैं. यदि राजधानी भोपाल में ही देखे तो राष्ट्रिय ग्रीन ट्रिब्यूनल के दिशानिर्देश के बाद भी कलियासोत क्षेत्र में निर्माण कार्यों को अनुमति दे दी गयी हैं जिस कारण से बाघों के क्षेत्र में बाधा पहुँच रही हैं. विगत एक माह से कई बाघ शहर में आ गए. यह सभी बाते इस ओर संकेत कर रही हैं की योजनओं में भारी कमी हैं और कुछ ही वर्षों में स्थिति सुधारने योग्य नहीं रह जायेगी.
 
पेरिस में संयुक्त राष्ट्र द्वारा आयोजित सीओपी21 आयोजित की जा रही हैं जिसमे 195 देश 
सम्मिलित हैं और रिओ डे जिनेरियो के क्योटो प्रोटोकॉल से प्रारंभ हुआ यह सिलसिला बाली, 
कोपेनहेगन, डरबन, दोहा, लिमा होता हुआ पेरिस पंहुचा हैं और जहाँ विक्सित देश बड़ी बड़ी 
बातें तो कर रहे हैं परन्तु बांग्लादेश जैसे गरीब देश से अपेक्षा कर रहे हैं की वह कार्बन उत्सर्जन 
में योगदान दे. विकास के नाम पर अमेरिका और यूरोप ने पर्यावरण का जमकर दोहन किया हैं 
और इनके कार्बन पदचिन्ह विकासशील देशो से बहुत अधिक हैं. यह जो बौद्धिक, राजनैतिक और 
आर्थिक चर्चा चल रही हैं वह प्रतिवेदन में ही रह जायेगी और विक्सित देश उपभोग कम करने 
की या संरक्षण की बात नहीं करेंगे अपितु विकासशील और गरीब देशो से अपेक्षा रखेंगे की वे 
अपने विकास कार्यों में पर्यवरण का ध्यान रखे. कुछ वर्ष पूर्व कार्बन क्रेडिट की बात आई थी 
जो भी विकसित राष्ट्रों के हित में थी. ऐसे में इन सम्मेलनों से बहुत कुछ अपेक्षा नहीं रखी 
जा सकती हैं क्यूंकि विकासशील और गरीब देश इतने महत्त्वाकांक्षी लक्ष्यों को प्राप्त कर विकास 
नहीं कर पायेगा और विकसित राष्ट्र अपने लूट और लालच पर लगाम नहीं लगा पायेंगे. 
 
आज जिस गति से बदलाव आ रहे हैं ऐसे में यह सोचना या कहना की विकास की गति को 
धीमा कर पर्यावरण संरक्षण किया जाए तो यह न तो संभव हैं और न ही व्यवाहरिक. वैकल्पिक 
योजना की ज़रूरत हैं जो उर्जा भी दे और प्रदुषण न्यूनतम करे. भारत जैसे देश में सौर्य उर्जा का 
उपयोग बड़ी आसानी से हो सकता हैं और इसमें राज्य की भूमिका अहम होगी. जो नए सरकारी 
निर्माण हो रहे हैं अथवा बड़े उदयोग स्थापित किये जा रहे हैं, वहाँ अनिवार्य रूप से इसी का उपयोग 
किया जाना चाहिए. साथ ही घरेलु उपयोग में भी इसे प्रोत्साहित किया जाना चाहिए और इसके लिए
 सोलार पैनल को सस्ता करना आवश्यक हैं. जब सोलर कुकर आये थे तो सरकार ने इस पर सब्सिडी 
दी थी, आज भी ऐसे ही किसी योजना की आवश्यकता हैं. हमारे देश में पवन उर्जा का भी उपयोग हो 
सकता हैं. कृषि अपशिष्ट से ब्रिकेट्टेस बनाये जा सकते हैं जिनका उपयोग ईट के भट्टी में किया जा 
रहा हैं. निर्माण कार्यों और शहरों के मास्टर प्लान में जल निकासी के इंतज़ाम किए जाने चाहिए 
और सबसे महत्वपूर्ण: “नागरिकों को जागरूक होना होगा”.
( http://epaper.subahsavere.news/c/7533041)