Monday, October 26, 2015

हिन्दी माध्यम में शिक्षा और हिन्दी भाषा का विकास




सर्वप्रथम आप सभी को विजय दशमी की शुभकामनाये और आशा करती हूँ की सभी की नवरात्री, दुर्गा पूजा अपने परिवार जनो और मित्रों के साथ आनंदमयी रही होगी. मेरे लिए पूजा के ये 4 दिन वर्ष भर के सबसे सुखद दिन होते हैं. इस बार के पूजा से धर्म, परम्परा के बारे में कुछ नयी बातें ज्ञात हुई और कुछ बड़े रोचक वक्तव्य भी पढने को मिले दशानन के सम्बन्ध में. इन पर चर्चा किसी और रोज़, आज हिन्दी भाषा को लेकर अपना तीसरा और अंतिम आलेख लिख रही हूँ. आज हिन्दी भाषा का शिक्षा के साथ सम्बन्ध को लेकर अपने विचार आप के समक्ष रखने की चेष्टा करुँगी.
      मैंने हिन्दी भाषा से सम्बंधित अपने पूर्व के दो आलेखों में राजनीति और वर्तमान परिस्थितिओं को लेकर चर्चा की थी जो कुछ पाठकों और मित्रों को सतही लगी और कुछ को अपरिपक्व. इस पर मेरी कोई टिपण्णी सही नहीं होगी. इसलिये आज कोशिश रहेगी की व्यवस्थित रूप से शिक्षा के क्षेत्र में हिन्दी भाषा के उपयोग एवं प्रासंगिकता पर मत रखूँ. जैसा की मैंने पहले भी कई बार लिखा हैं की मेरी सम्पूर्ण शिक्षा आंग्ल भाषा में हुई और हिन्दी भाषा से निकटता एवं प्रेम का सम्बन्ध कुछ 15 वर्षो का हैं जब से मैंने एक शिक्षक के रूप में अपना कार्य प्रारंभ किया. इसलिए हिन्दी भाषा में अर्थशास्त्र, जो मेरा विषय हैं, की पुस्तके मैंने वर्ष 2000 में पहली बार पढा और पाया की आंग्ल भाषा की पुस्तकों की गुणवत्ता अधिक हैं. जिन भारतीय लेखकों की भी टेक्स्ट बुक्स अंग्रेजी से हिन्दी में रूपांतरित कर लिखी गयी, वे भी अंग्रेजी में अच्छी हैं. और तब मुझे लगा की अंग्रेजी न जानने से मेरे छात्र बहुत कुछ से वंचित थे. और तब से प्रारंभ हुई मेरी चेष्टा की मैं अपने छात्रों को हिन्दी भाषा में वो सब दूं जो मैंने अंग्रेजी पुस्तकों से प्राप्त किया.
      धीरे धीरे जैसे जैसे कार्य क्षेत्र में वृद्धि हुई और अन्य विषय के शिक्षकों के साथ संवाद स्थापित हुआ तो पता लगा की विज्ञान में स्थिति और ख़राब हैं. जिन शिक्षकों ने अपनी सम्पूर्ण शिक्षा हिन्दी भाषा में पूरी की हैं, उनका भी मत हैं की तकनिकी शब्द अंग्रेजी में ही बेहतर लगते हैं और सरल भी. और सबसे महतवपूर्ण बात ये की जब बाहर काम के लिए छात्र जाता हैं तो वहा अंग्रेजी शब्दों का ही प्रयोग होता हैं. एक प्रसंग याद पड़ता हैं, हमारे एक छात्र का जो बीएससी करने महाविद्द्यालय में आया और कुछ ही दिनों में सारे शिक्षक उसकी कक्षा लेने से घबराने लगे और उसका कारण था की वह शुद्ध हिन्दी में ही अपनी कक्षाए चाहता था और तकनिकी शब्दों के लिए भी उसे आंग्ल भाषा का उपयोग पसंद नहीं था. शिक्षकों ने बड़ी कठिनाई से उसे 5 वर्ष पढाया. इस प्रसंग का उल्लेख इसलिए आवश्यक हैं क्यूँ की शिक्षकों को यह बात भली भांती पता हैं की जब वह किसी भी क्षेत्र में नौकरी करेगा तो ये हिन्दी भाषा का प्रेम उसके लिए समस्या बन जायेगा. इसमें एक तकनिकी समस्या भी हैं. विश्विद्द्यालय में स्नातकोत्तर स्तर की पढायी अंग्रेजी में ही होती हैं, खासकर विज्ञान में. अब जो छात्र स्नातक स्तर तक हिन्दी भाषा में पढता आया हो वह अचानक से कैसे अंग्रेजी माध्यम में पढेगा और अपनी अभिव्यक्ति करेगा? खैर आज के हालात में छात्र हिंगलिश में उत्तर देते हैं और अच्छे नम्बरों से पास भी होते हैं.
      ऐसे में हम क्या करे जो हिन्दी भाषा को भी जीवित रखे और छात्रों को नौकरी के लिए भी तैयार करे? मेरा मानना हैं की सरकार को अहम् भूमिका निभानी होगी ऐसे में. हमारे पास कई ऐसे सेवानिवृत शिक्षक हैं जिनकी हिन्दी भाषा और अपनी विषय दोनों पर ही अच्छी पकड़ हैं, इन लोगों का हमे उपयोग करना होगा. सरकार यदि इन वरिष्ठों से बात करे तो वे विभिन्न भाषाओँ के चुनिन्दा, मानक पुस्तकों का हिन्दी में अनुवाद करा, सभी महाविद्द्याल्यों के पुस्तकालय में रखवा सकते हैं. इससे दो समस्याओं का समाधान मिल जाएगा, पहला छात्रों को उत्कृष्ट पुस्तकों को पढने का अवसर मिलेगा और साथ ही कुंजी बाज़ार का एकाधिकार समाप्त होगा. साथ ही छात्रों को अंग्रेजी भाषा से जोड़ना होगा,बिना हिन्दी भाषा को द्वयं दर्जे का बताते हुए. आज कही न कही हिन्दी माध्यम से पढने वाले छात्रों में एक हीन भावना का बोध होता हैं क्यूंकि नौकरी के बाज़ार में वह अपने आप को कमतर पाता हैं. और इसलिए वह अपने हिन्दी सोच को अंग्रेजी भाषा में ढलकर प्रस्तुत करता हैं जो दोनों ही भाषाओँ का अपमान हैं.
      आज के जीवन और परिस्थितिओं का यह कटु सत्य हैं की अंग्रेजी रोजी रोटी की भाषा बन गयी हैं इसलिए छात्रों के एक तबके को इस भाषा से दूर रखना उनके साथ अन्याय होगा, परन्तु यदि केवल अंग्रेजी माध्यम और अंग्रेजी भाषा को ही आगे बढाया जाए तो हिन्दी भाषा के भविष्य का क्या होगा? ज़रूरी हैं की हिन्दी भाषा को नौकरी की भाषा बनायीं जाए और इसके लिए ज़रूरी हैं की भाषा का विकास हो और समय के साथ नए शब्दों को शब्दवली में जोड़ा जाए. यदि विश्व स्तर पर हिन्दी भाषा को फ्रेंच और मेंडरिन भाषा जैसी स्वीकार्यता प्राप्त होगी तो छात्रों और युवाओं के लिए सहायक होगा. साथ ही जो साथी हिन्दी भाषा में अनुवाद कर रहे हैं और पुस्तक लिख रहे हैं वे गुणवत्ता का ध्यान रखे ताकि छात्रों का ज्ञान प्रभावित न हो सके.
      शिक्षा का उद्देश्य हमेशा ज्ञान वर्धन होता हैं, भाषा का माध्यम चाहे कोई भी हो. किसी माध्यम में यदि छात्रों का अधिक ज्ञान वर्धन हो रहा हो अथवा नौकरी के बाज़ार में यदि उनकी क्रयशीलता  में वृद्धि होती हैं तो बड़ी सरलता से यह भाषा प्रचलित हो जाती हैं. आज की आवश्यकता हैं की हिन्दी को प्रचलित भाषा बनाया जाए और इसके लिए इसकी बाज़ार में स्वीकार्यता को बढाना होगा. केवल राजनैतिक भाषणबाज़ी या अंतरराष्ट्रीय हिन्दी सम्मलेन करेने से बहुत मदद नहीं मिलेगी.

( यह आलेख हिन्दी दौनिक सुबह सवेरे में प्रकाशित हुआ हैं जिसका लिंक हैं http://epaper.subahsavere.news/c/7024115 )

Monday, October 19, 2015

वर्तमान पर इतिहास के पदचिन्ह




इस सप्ताह के आलेख लिखने में बड़ी कठिनाई हुई क्यूंकि कई मुद्दे मन में घूम रहे थे. हिन्दी और शिक्षा भी अभी शेष था, राजनीति में भी हलचल बहुत हैं और समाज में नित्य नए सवाल उठते रहते हैं. दो बातों से आज के आलेख का विषय तय हो गया- पहला एक राष्ट्रिय स्तरीय सेमिनार जिसकी मैं भाग थी और दूसरा आरएसएस के मुखपत्र पांचजन्य के नवीनतम अंक में चाप आलेख जिसमे गौ हत्या को वेदों से जोड़ा गया हैं.
राष्ट्री सेमिनार का विषय पर्यावरण से जुड़ा था और ईआईए यानि की एनवायरनमेंट इम्पैक्ट अस्सेस्मेंट था, जिसमे एक वरिष्ठ वैज्ञानिक ने भारत के आधुनिक मंदिरों का उल्लेख किया तो सहसा मन हुआ की पंडित जी के बारे में पढ ले और पांचजन्य के आलेख के बाद तो और भी लगा की पंडित नेहरु को आज के परिपेक्ष में लिखना और पढना अनिवार्य हैं.  
हम सभी जानते हैं की नेहरु जी एक ब्राह्मण कुल में जन्मे थे परन्तु उन्होंने कभी भी धार्मिक परम्पराओं को अधिक महत्व नहीं दिया और राजनीति और समाज सेवा में उन्होंने हमेशा सभी को साथ लेकर चलने की बात की और किया भी. 1947 में जब देश आज़ाद हुआ था और बटवारे की आग पूरे देश में सुलग रही थी तो दो दिन बाद ही पंडित नेहरु प्रधान मंत्री के रूप में पंजाब पहुचे जहाँ सिख और मुस्लमान आपस में लड़ रहे थे और उन्होंने सभी से अपील की , कि ये हिंसा छोड़ दे और नए राष्ट्र के  निर्माण में अपना योगदान दें. अभी दादरी के घटने के कितने दिनों बाद हमने अपने प्रधान मंत्री जी का वक्तव्य सुना और वो भी संतोषजनक नहीं था क्यूंकि वे राज्य सरकार पर संपूर्ण ठीकरा फोड़ रहे थे.
आज 100 स्मार्ट सिटी बनाने की बात की जा रही हैं और 4700 करोड़ रूपए एक सिटी को दिए जाने की बात हो रही हैं. हमारा शहर भोपाल भी स्मार्ट सिटी के सूचि में सम्मिलित हैं परन्तु ये देख आश्चर्य होता हैं की एक ओवर ब्रिज बनाने में 7 साल लग गए तो क्या स्मार्ट सिटी नियमित समय अवधी में बनना संभव हैं? वही पंडित नेहरु ने 5 साल में आईआईटी, भाकर नंगल, हीराकुद बाँध बनवा दिए थे, नव रत्न कंपनी की नीव रख दी थी और साथ ही लघु उद्योगों के लिए भी निति तैयार कर ली थी. साथ ही वे जानते थे की कृषि के बिना उद्द्योगों का काम नहीं हो सकता हैं इसलिए पहली पंच वर्षीय योजना में कृषि को महत्व दिया गया. आज कृषि और कृषकों की हालत किसी से छुपी नहीं हैं. केवल महाराष्ट्र में ही 800 से अधिक किसानो ने आत्महत्या की हैं. और 7 रेस कोर्स रोड पर रह रहे महोदय अपने विपक्षिओं को कोसने के अलावा कुछ नहीं कर रहे हैं. पुराने योजनाओं को अपने नाम से आरम्भ कर सेल्फी तो लिए जा रहे हैं परन्तु जहाँ भी जिम्मेदारी की बात आती हैं वे पूर्व सरकार को गलत बता देते हैं. वे यदि गाँधी जी और नेहरु जी का उल्लेख करते हैं तो ज़रूरी यह भी हैं की वे उनसे कार्यप्रणाली भी सीखे.
आज 40 साहित्यकारों ने अपने साहित्य अकादेमी पुरूस्कार लौटा दिए हैं और सरकार के कई मंत्री इसे देशद्रोह या लाफ्फ्बाज़ी मान रहे हैं. कही न कही पत्रकारों के लिए भी जिस प्रकार की भाषा और रवैया अपनाया जा रहा हैं वह दमनकारी हैं. नेहरु जी के साथ का एक वाक्या ये स्पष्ट करता हैं की वे पत्रकारों और लेखकों के लिए क्या सोचते थे . एक बार किसी कार्यक्रम में वे मंच पर चढ़ रहे थे तो उनका पैर फिसल गया तो किसी पत्रकार ने उन्हें थाम लिया और कहाँ प्रधान मंत्री जी संभलकर, नेहरु जी ने पलटकर कहाँ की ज़रूरत नहीं हैं क्यूंकि यदि मैं देश के निर्णय लेने में सही पथ से भटक जाऊ तो ये चौथा स्तम्भ हैं मुझे सँभालने के लिए.
ऐसा ही कुछ नज़रीय उनका भ्रष्टाचार को लेकर भी था. एक बार वे चुनाव रैली में कांग्रेस के प्रत्याशी के लिए प्रचार करने गए और मंच पर उन्हें ज्ञात हुआ की प्रत्याशी पर भ्रष्टाचार के आरोप थे. उन्होंने मंच से ही कह दिया की जानकारी नहीं थी इसलिए इस व्यक्ति को पार्टी का प्रत्याशी बनाया गया परन्तु जनता अपने विवेक का उपयोग करे. और आज ये माहौल हैं की वर्तमान प्रधान मंत्री अपने सारे भ्रष्ट नेताओं को और मंत्री – मुख्य मंत्रिओं को बचाने की बात कर रहे हैं और उल्टा विपक्ष पर दोषआरोप कर रहे हैं.
नेहरु जी बहुत स्पष्ट थे की महिलाओं को देश के विकास में बराबरी का योगदान देना हैं और इसलिए उन्हें अधिकार भी बराबरी के दिए जाने चाहिए. पहले चुनाव के समय जब उनसे पूछा गया की किसे मताधिकार होगा तो उन्होंने महिलाओं और पुरुषों की समानता के अधिकार बताये. स्वतंत्रता पूर्व 1928  में नेहरु जी ने अपने एक भाषण में कहा था की किसी भी देश के विकास की जानकारी देश के महिलाओं के विकास से ज्ञात होती हैं.  1961 में दहेज़ प्रथा को गैरकानूनी घोषित कर दिया गया था. आज महिलाओं की स्थिति बद से बदतर होती जा रही हैं और मेरे पिछले आलेख में मैंने उत्तर प्रदेश के एक घिनोने कृत्य का उल्लेख भी किया था. दो दिन पूर्व दिल्ली में 2 छोटी बच्चिओं के साथ दुष्कर्म हुआ परन्तु हमारे किसी बड़े नेता और प्रधान मंत्री जी की कोई टिप पढने को नहीं मिली.
ऐसे कई दृष्टान्त हैं जो नेहरु जी के अग्रणी सोच और परिपक्वता को दर्शाते हैं. किस प्रकार उन्होंने अपने राजनैतिक प्रतिद्वंदी के साथ व्यवहार किया, इसके भी कई उल्लेख हैं और हम कैसे भूल सकते हैं की आदरणीय पूर्व प्रधान मंत्री श्री अटल बिहारी बाजपाई जी के वाक्पटुता से पंडित जी इतने प्रभावित हुए थे की उन्होंने कहा था की वे एक दिन देश का नेत्रित्व करेंगे.
      कहने लिखने को बहुत कुछ हैं और ज़रूरी हैं किसी भी देश के जनतंत्र के लिए की वहां की राजनितिक सोच परिपक्व हो और साथ ही सत्ता में विपक्ष की बात सुनने की क्षमता हो.

Monday, October 12, 2015

उत्तर प्रदेश का युवा नेत्रित्व और गिरती मानवता





हर्ष के स्वर में छिपा जो व्यंग्य हैं
कौन सुन समझे उसे? सब लोग तो
अर्द्ध मृत से हो रहे आनंद से,
जय सुरा की सनसनी से चेतना निस्पंद हैं

दिनकर जी के ये पंक्तियाँ करीब 60 साल पहले की लिखी हैं पर आज भी हमारे समाज, राजनीति और राजनेताओं का सटीक वर्णन करती हैं. 4 दिन पहले फेसबुक पर नीचे स्क्रॉल करते हुए एक विडियो चल पड़ा और ऐसा लगा की कुछ गड़बड़ देखा. लौटकर उसी विडियो पर आई तो देखा की पुलिस वाले बर्बरता से एक महिला के पीट रहे थे और उसे निर्वस्त्र कर रहे थे और फिर उसके पति को भी निर्वस्त्र किया. उस महिला के गोद में उसका बच्चा था. ये देख के दिल देहक उठा और आँखें नम हो गयी. चूँकि उस वक़्त अपने महाविद्द्यालय में थी और घंटी बज गयी तो उठकर कक्षा लेने चली गयी परन्तु एकाधिकार पढाते पढाते भी वही विडियो दिमाग में घूम रहा था. जब सभी कक्षाए समाप्त हुई और आकर बैठी और सोचने लगी  तो मन गुस्से से भर गया. दुबारा उस विडियो को देखा और खबर पड़ी की ये घटना उत्तर प्रदेश की हैं जहाँ एक एस एच ओ ने ये काम किया हैं. विडियो में कई पुलिस वाले खड़े हैं और आम जनता भी. सबसे पहले विचार आया की जो व्यक्ति खड़े होकर अपने मोबाइल से विडियो बना सकता हैं क्या वो इन लोगों की मदद नहीं कर सकता था? क्या नपुंसक लोग ही उस भीड़ का हिस्सा थे? वह एसएचओ तो मनुष्य कहलाने योग्य नहीं हैं परन्तु जो मूक दर्शक थे उनकी चेतना को क्या हो गया था ? खून सही में पानी हो गया हैं.
अगले दिन सुबह उठी तो लगा समाचार पत्र में ये पड़ने मिलेगा परन्तु कही कोई खबर ही नहीं थी. कुछ मित्रों से बात की तो बोले ये पहली घटना तो नहीं हैं और न ही आखरी. शायद उस क्षेत्र के समाचार पत्र के एडिशन में छपा हो. मैं चुप रह गयी. फिर व्हाट्स एप्प पर पत्रकारों के एक समूह में किसी ने इस विडियो और चित्रों को भेजा तो एडमिन ने लिखा की अश्लीन चित्रों का उपयोग न किया जाए और अपनी बात शब्दों से बयां किया जाए. इसपर जब थोड़ी चर्चा हुई तो एक महाशय को ग्रुप से बहार निकाल दिया गया और मुझे कहाँ गया की वे अभी पूजा में व्यस्त हैं, किसी और दिन फुर्सत में चर्चा करेंगे. क्या यह विषय फुर्सत में चर्चा करने का रह गया?
घटना के बाद तीसरी सुबह जब महाविद्द्यालय के लिए निकली तो रेडियो पर विज्ञापन चल रहे थे. आगरा से लखनऊ तक एक्सप्रेस हाईवे बनाने की बात हो रही थी और उत्तर प्रदेश के युवा मुख्य मंत्री जी के तारीफों के पुल बंधे जा रहे थे. स्वाभाविक था की मेरे आंदोलित मन को ये विज्ञापन बिलकुल अच्छा नहीं लगा और ऐसा प्रतीत हुआ की मुख्य मंत्री जी रेडियो पर सबको जीब चिड़ा रहे थे की देखो मैं तो वैसा ही हूँ जैसा राजनेता को होना चाहिए. मेरे सफ़ेद कपड़ों पर कोई दाग नहीं हैं, मेरा ह्रदय अब बचा नहीं केवल एक यंत्र हैं जो शारीर में खून फेकता रहता हैं, मेरा मन अर्द्ध मृत हैं और मेरी चेतना निस्पंद हैं. और मैं इसलिए राज कर रहा हूँ क्यूंकि जनता में चेतना हैं ही नहीं, वह तो केवल अपने रोटी, कपडे और मकान में व्यस्त हैं. जब चाहूँगा उसे गो मास के नाम से, मस्जिद मंदिर के नाम से, जाती के नाम से पाट दूंगा और आपस में ही वो लड़ भीड़ के मर जायेंगे. और जिस दिन मुझे उनपर थोड़ी दया आएगी तो मैं लड़किओं को साइकिल दे दूंगा, एक्सप्रेस वे बनाने की घोषणा कर दूंगा, साफ़ सफाई करवा दूंगा और सैफई में अपने मुंबई के दोस्तों को न्योता देकर जलसा करवा दूंगा. 5 साल बाद जब मुझे इस मूर्ख जनता की थोड़ी सी ज़रूरत होगी तो जैसे कुत्तों के सामने कुछ बोटियाँ डालता हूँ, वैसे ही इनके सामने भी सब्जबाग के ख्वाबो को बोटी दाल दूंगा. और नहीं माने तो मेरे दुसरे हिंदुत्व के रक्षक दल के साथ मिलकर दंगे करवा दूंगा. और ये केवल मैं इस राज्य में नहीं बल्कि सबी राज्यों में करवा सकता हूँ क्यूंकि हम राजनेताओ में बड़ी एकता हैं, हम भले ही बहार एक दुसरे को गाली दे पर शाम को तो रोटी एक साथ ही तोड़ते हैं.
विगत 3 दिन से मन में हलचल हैं, ऐसा लग रहा हैं की चीख चीख कर लोगों से कहू की अपने चेतना को मरने मत दो, थोडा तो दुसरे मनुष्य के लिए सोचो. साथ ही पहली बार ऐसा लगा की लड़की पैदा होना कितना दुर्भाग्यपूर्ण हैं क्यूंकि जब भी समाज में या परिवार में कोई झगडा होगा तो उसकी सबसे पहली भेट लड़की होगी. हम शायद अबला ही रह गए और रह जायेंगे, ये सारी शिक्षा, सशक्तिकरण केवल नाम के हैं क्यूंकि इज्ज़त तो केवल हमारी उतारी जायेगी. नौ दुर्गा में हमारा समाज दुर्गा देवी, शक्ति स्वरूपा के ९ रूप तो पुजेगी परन्तु उसी पंडाल में घूम रही बच्चिओं की इज्ज़त से भी खेलेगी.
सत्य ही तो, जा चुके सब लोग हैं
दूर इर्ष्या द्व्ष, हाहाकार से!
मर गए जो, वे नहीं सुनते इसे;
हर्ष के स्वर जीवितों का वुंग्य हैं 

(13अक्तूबर 2015के सुबह सवेरे दैनिक के अंक में यह प्रकाशित हुआ हैं. इसका लिंक हैं http://epaper.subahsavere.news/c/6864528)

Monday, October 5, 2015

दादरी काण्ड, गौ मास, हिन्दुत्व और हम



सबसे पहले तो मैं आप सभी से क्षमा चाहूंगी की मैंने इस सप्ताह अपना वादा नहीं निभाया और हिन्दी भाषा के अपने तीसरे और अंतिम लेख को न प्रस्तुत करते हुए, मैं विगत सप्ताह के सबसे महतवपूर्ण घटना पर अपने विचारों को कलम कर रही हूँ. बहुत चाहा की हिन्दी भाषा और शिक्षा पर ही लेख भेजू संपादक महोदय के पास पर अंतरात्मा नहीं मानी. यदि समाज ही नहीं बचेगा तो भाषा और उसके भविष्य पर बात करना बैमानी होगी.
28 सितम्बर को दादरी में हुए घटना से आप सभी भली भाति परिचित हो गए होंगे अभी तक और उस पर कम से कम 20 एक लेख भी पड़ चुके होंगे. जब माइक्रो ब्लॉग्गिंग साईट ट्विटर पर मैंने यह खबर सबसे पहले पड़ी तो विश्वास न हुए की किसी के गाय के मास खाने पर उसे मार दिया गया. अपनी प्रतिक्रीय ज़रूर दी परन्तु लगा की अभी जब खोजबीन होगी तो और कोई कारण सामने आ जाएगा. परन्तु ऐसा कुछ हुआ नहीं. और जो पहले दिल दहलाने वाली घटना थी, अब शर्मसार करने वाली और भविष्य के लिए एक चेतावनी के रूप में समझ आई.
इस घटना ने कुछ प्रमुख प्रश्न उठाये हैं. पहला तो राजनैतिक हैं जिस पर आप लोग बहुत कुछ सुन पड़ रहे हैं. यदि एक कोने में साक्षी महाराज जैसे लोग हैं जो न जाने किस हिन्दू धर्म के ठेकेदार बने बैठे हैं, अखलाक खान के परिवार को दी जाने वाली सहायता राशि को तुष्टिकरण बता कर अलगाववाद को और हवा दे रहे हैं, तो वही दूसरी ओर आज़म खान जैसे नेता हैं जो सयुक्त राष्ट्र में इस बात को ले जाने की बेतुकी बात कर रहे हैं.
हमारे संविधान ने हमे यह अधिकार दिया हैं की हम क्या खाए और क्या पीये, इसलिए हमारे भोजन पर से यदि हमे कोई मार डाले, इससे और शर्मनाक क्या हो सकता हैं. इस विषय पर किसी और दिन आप लोगों से चर्चा करुँगी, बस विवेकानंद जी की एक बात दोहराना चाहूंगी कि, उन्होंने काहा था की भारत में लोगों के पाक्घर में भगवान् बसते हैं.
दूसरा प्रश्न महिला के सम्मान, उसकी सुरक्षा और अस्मियता से जुड़ा हैं. जब वो दरिन्दे अखलाख जी के घर घुसे और उनके साथ हिंसा करने लगे, तो उनकी बेटी उन्हें बचाने आई तो उसके साथ बदसुलूकी तो हुई. परन्तु जो बाद में सत्तारुड पार्टी के प्रतिनिधि ने कहाँ वो और बड़ी हिंसा थी. उन्होंने कहाँ की उसके इज्ज़त के साथ तो कोई नहीं खेला? तो क्या ये महोदय कहना चाह रहे थे की ऐसे में यदि बेटी की आबरू भी चली जाती तो उसे मात्र एक घटना माना जाता? क्या हमारा समाज इस निचले स्टार पर आ गया हैं?
तीसरा एक आर्थिक सवाल हैं. चूँकि मैं इस विषय को थोड़ा बहुत समझती हूँ, इसलिए बार बार एक प्रश्न मन में गूँज रहा हैं कि उन सब गाय का क्या जो सडको पर आवारा घुमती रहती हैं, और कभी पॉलिथीन, कभी ज़हरीली चीज़े खाकर मर जाती हैं? और उन सब लोगों का क्या होगा जो गाय के मास की बिक्री कर अपना भरण पोषण करते हैं? और जो गाय के मास का निर्यात करते हैं, उसमे बहुत से हिन्दू व्यवसायी भी हैं, तो अब उनके साथ क्या व्यव्हार किया जाएगा? जो देसी गाय का व्यवसाय करते हैं, उन्हें भी बहुत कम लाभ होता हैं और बीबीसी के एक रिपोर्ट के अनुसार ये घाटे का सौदा हैं, तो क्या अब केवल विदेश गाय माता का ही पालन पोषण किया जाएगा? गाय को इंजेक्शन लगाकर दूध निकालना जो गाय और इस दूध का सेवन करने वाले दोनों के लिए ही घातक हैं, हमारे हिन्दू समाज में माननीय हैं? ऐसे और भी कई प्रश्न हैं जो हमारे दोगलेपन को सामने लाते हैं.
यहाँ मैं राजनीतिज्ञों के भूमिका पर कुछ नहीं कहना चाहूंगी क्यूंकि मेरे एक मित्र ने पिछला आलेख पड़कर कहाँ था की नेताओं को गरियाना आसन हैं, अपने गिरेबान में झांक के देखना भी ज़रूरी हैं. इसलिए आज मैं आत्म्लोकन पर ही बात करुँगी की यह हमारा कैसा समाज हैं जो एक तरफ डिजिटल इंडिया के सपने देख रहा हैं और दूसरी तरफ हमारे घर के फ्रिज में रखे सामन से  हमारा आंकलन कर रहा हैं? ये कैसा समाज हैं जो बाहर तो लड़किओं के पाव पूजता हैं परन्तु उसे बेआबरू करने में सोचता भी नहीं? ये कैसा समाज हैं जो व्यक्तिगत तौर पर व्यवसाय से केवल लाभ कमाना चाहता हैं परन्तु सामाजिक तौर पर धर्म के नाम पर काम को अच्छा या गन्दा बताता हैं? ये कैसा समाज हैं जहाँ हमारा युवा शिक्षित होते हुए भी पाषण युग के व्यक्ति जैसा व्यवहार करता हैं? ये कैसा समाज हैं जो धर्म को कुछ लोगों या रीती रिवाजों तक सिमित रखता हैं? ये कैसा समाज हैं जो यह नहीं समझता की कुछ राज्यों में अभी चुनाव होने को हैं और हमारे भावनाओं का नजायज लाभ उठाया जा राह हैं?
अनगिनत प्रश्न हैं जिनका जवाब हम जानते तो हैं परन्तु मानना नहीं चाह रहे हैं. जिस दिन ह्रदय और दिमाग साथ चलने लगेंगे, ये दादरी की घटनाये नहीं होंगे और फिर किसी अख़लाक़ को भोजन के कारण मरना नहीं पड़ेगा.