आज पुरे हिंदुस्तान में राहुल गाँधी बनाम नरेन्द्र मोदी की बहस छिड़ी हुई
है। उत्तराखंड के आपदा में भी लोगों ने दोनों के बीच तुलना करना नहीं भुला।
हम में से जितने लोग भी राजनीति की बारीकियों को समझने की चेष्टा करते हैं
और राजनीति के छात्र हैं उनके लिए यह बहस केवल दो नेताओं के बीच की तुलना
या अपने राजनैतिक विचारधारा दिखाना मात्र का नहीं हैं, परन्तु दो एक दम
विपरीत सोच का अध्यन है। साथ ही देश के भविष्य का भी आकलन लगाया जा सकता है
उनकी सोच से । चुकी मैं कांग्रेस विचारधारा की हूँ और पदाधिकारी भी हूँ तो
मैं बहुत ज्यादा दोनों की तुलना में नहीं जाउंगी क्यूंकि शायद मैं
पारदर्शी विश्लेषण करने में सक्षम नहीं हूँ। बस इतना कहना ज़रूर चाहूंगी की
जब भी मैं राहुल जी को सुनती हूँ तो कहीं न कहीं अपनी सोच को उनसे जुड़ा
पाती हूँ।
आज हम सब विकास को सबसे बड़ा मुद्दा मानते हैं। वैश्वीकरण के इस युग में हम सब चाहते हैं की प्रत्येक भारत वासी विकास का भागिदार बने और अंतिम पंक्ति के अंतिम व्यक्ति तक विकास पहुचे। ऐसे में अनुच्छेद ३७० की बात उठाना, सम्प्रय्दायिक दंगो की बात करना कहा तक सही है। प्राकृतिक आपदा में सब की सोच होती हैं अधिक से अधिक लोगों को बचाने की और राहत पहुचने की। ऐसे समय में किसी व्यक्ति विशेष की बात करना बैमानी हैं।
२१ वी शताब्दी में धर्म के आधार पर लोगों को पाटना कहाँ का विकास हैं? वर्त्तमान राजनीति में ध्रुवीकरण करने की कोशिश की जा रही हैं, चाहे वह किसी एक व्यक्ति को सर्वेसर्वा दिखाकर किया जा रहा हैं, अथवा जाति धर्म के नाम पर किया जा रहा हो।
यहाँ पर उनकी बात करनी भी ज़रूरी हैं जो ६ साल की निद्रा के बाद एकदम से धर्म निरपेक्ष हो गए हैं और विकास पुरुष बनना चाहा रहे हैं। आप या तो धर्म निरपेक्ष हैं अथवा नहीं हैं। राजनैतिक कारणों से आप अपना दल नहीं बदल सकते हैं।
आज के युवाओं के लिए यह ज़रूरी हैं की वो व्यक्ति की वाक् पटुता पर ही न जाये परन्तु भविष्य की भी सोचे।
आज हम सब विकास को सबसे बड़ा मुद्दा मानते हैं। वैश्वीकरण के इस युग में हम सब चाहते हैं की प्रत्येक भारत वासी विकास का भागिदार बने और अंतिम पंक्ति के अंतिम व्यक्ति तक विकास पहुचे। ऐसे में अनुच्छेद ३७० की बात उठाना, सम्प्रय्दायिक दंगो की बात करना कहा तक सही है। प्राकृतिक आपदा में सब की सोच होती हैं अधिक से अधिक लोगों को बचाने की और राहत पहुचने की। ऐसे समय में किसी व्यक्ति विशेष की बात करना बैमानी हैं।
२१ वी शताब्दी में धर्म के आधार पर लोगों को पाटना कहाँ का विकास हैं? वर्त्तमान राजनीति में ध्रुवीकरण करने की कोशिश की जा रही हैं, चाहे वह किसी एक व्यक्ति को सर्वेसर्वा दिखाकर किया जा रहा हैं, अथवा जाति धर्म के नाम पर किया जा रहा हो।
यहाँ पर उनकी बात करनी भी ज़रूरी हैं जो ६ साल की निद्रा के बाद एकदम से धर्म निरपेक्ष हो गए हैं और विकास पुरुष बनना चाहा रहे हैं। आप या तो धर्म निरपेक्ष हैं अथवा नहीं हैं। राजनैतिक कारणों से आप अपना दल नहीं बदल सकते हैं।
आज के युवाओं के लिए यह ज़रूरी हैं की वो व्यक्ति की वाक् पटुता पर ही न जाये परन्तु भविष्य की भी सोचे।
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